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________________ मुक्ति का अर्थ ज्ञानप्राप्ति है, ज्ञान से जीव में त्यागबुद्धि का उदय होता है, त्याग से वैराग्य पनपता है, वैराग्य से शुद्धि आती है और शुद्धता से परिपक्व होने से जीव का उद्धार (जन्म-मरण से निवृत्ति) हो जाता है। उपर्युक्त अवधारणा जैन दर्शन के बंधन एवं मोक्ष की अवधारणा से समानता रखती है, क्योंकि जैन दर्शन के अनुसार भी राग संसार का मूल कारण है। मिथ्यात्व के समाप्त होने पर ही सम्यग्दर्शन का उदय होता है, जिससे वैराग्योदय होने से विषयोपभोग तथा उसकी आसक्ति का त्याग होता है एवं सम्यग्ज्ञान की भी प्राप्ति होती है। ज्ञान प्राप्ति के बाद व्यक्ति मुक्त हो जाता है। जगत् के मूल तत्त्व दृश्यमान जगत में दो प्रकार के पदार्थ दिखलाई देते हैं. दोनों के गणधर्म भिन्न-भिन्न हैं, वे सचेतन तथा अचेतन हैं, जैन दर्शन में इन्हें जीव और अजीव कहा जाता है। इन्हीं को जगत् के मूल तत्त्व माना है। जगत् में आत्मा के अतिरिक्त सब कुछ अजीव के अन्तर्गत आ जाता है। आत्मा चैतन्यगुण युक्त है तथा अजीव अचेतन है। पुराणों में भी इन दोनों प्रकारों का उल्लेख है। उनमें पुरुष को सचेतन तथा प्रकृति को अचेतन बताया गया है। जिस प्रकार से जैन दर्शन में जीव तथा अजीव इन दोनों को मूल तत्त्वों के रूप में स्वीकार किया गया है; वैसे ही पुराणों में भी प्रकृति तथा पुरुष को जगत् के मूल घटक माना है। जिनमें से प्रकृति एवं प्रकृति के सभी विकार को जड़ अर्थात् अचेतन तथा पुरुष (आत्मा) को चैतन्यगुण युक्त कहा है। पुरुष के अतिरिक्त सब जड़ है। प्रकृति और पुरुष के संयोग से जगत् गतिशील है, प्रकृति जड़ है, अतः केवल उससे सृष्टि-प्रक्रिया सम्भव नहीं है। उसकी क्रिया पुरुष के चैतन्य से निरूपित होने पर ही होती है। जिस प्रकार अंधा और लंगड़ा एक-दूसरे की सहायता से ही भयंकर अरण्य पार कर सकते हैं, वैसे ही प्रकृति और पुरुष ये दोनों मिलकर सृष्टि के कार्य कर सकते हैं। “मनस् इत्यादि स्वतः चेतन नहीं हैं बल्कि पुरुष के प्रभाव से ऐसे हैं।१९ इस प्रकार पुरुष के सान्निध्य मात्र से परिवर्तन होता है तथा पुरुष से प्रकृति के प्रभावित होने की सम्भावना को लोहे को आकर्षित करने वाले चुम्बक के दृष्टान्त से समझाया गया है। इस प्रकार से पुरुष तथा प्रकृति ये दोनों ही मौलिक सत्ताएँ हैं, न पुरुष प्रकृति से उत्पन्न है और न प्रकृति पुरुष से उत्पन्न है। पुरुष की सक्रियता प्रकृति के कारण है तथा प्रकृति भी पुरुष के सान्निध्य से नित्य गतिशील है। इस प्रकार अचेतन एवं चेतन दो सत्ताओं को जगत् के मूल में मानने के कारण जैनदर्शन के समान पुराण भी द्वैतवादी कहे जा सकते सांख्य के अनुसार-पुरुष अनन्त है और प्रकृति ही समस्त संसार की हेतुभूत है। शिवपुराण-कार के अनुसार भी “पुरुष प्रधान महान् की समावृत करके स्थित है जगत् - विचार / 226
SR No.004426
Book TitlePuranome Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharanprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2000
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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