________________ अस्थिरूपी खम्बों पर स्थित प्रज्ञारूपी प्रकोष्ठ वाला, सभी वस्तुओं को रोकने में समर्थ, चर्मरूपी दीवार से युक्त, माँस और रक्त के लेप वाला, चारों ओर से शिराओं से जकड़ा हुआ, नौ द्वारों वाला यह शरीर महा आयास (कष्ट) वाला है और वहाँ पर राजारूपी चेतनावान् पुरुष (आत्मा) अवस्थित रहता है। बुद्धि और मन ये दोनों उस राजा के विरोधी मन्त्री हैं और वे दोनों एक-दूसरे के वैर को दूर करने के लिए यत्न करते रहते हैं। काम, क्रोध, लोभ और मोह ये चार उस राजा के अन्य शत्रु हैं और ये चारों शत्रु उसका विनाश चाहते हैं। जब वह राजा अपने (नवों) द्वारों को बन्द किये रहता है तो उसकी शक्ति सुरक्षित रहती है और वह आतंकरहित बन जाता है। (उस स्थिति में) वह अनुराग उत्पन्न होने पर भी शत्रुओं से अभिभूत नहीं होता, किन्तु जब वह सभी द्वारों को खुला छोड़ देता है तो राग नामक शत्रु नेत्रादि द्वारों से आक्रमण कर देता है। महान् शक्तिशाली, सर्वव्यापी, पंचद्वारों से प्रवेश करने वाले, उस राग नामक शत्रु के पीछे-पीछे अन्य तीन भयंकर शत्रु भी प्रविष्ट हो जाते हैं। तत्पश्चात् उन द्वारों से प्रवेश करके वह राग मन आदि अन्य विभिन्न नामों वाली इंन्द्रियों से सम्पर्क स्थापित कर लेता है। उसके बाद मन और इन्द्रियों को वश में करके वह दुर्जेय हो जाता है एवं समस्त द्वारों पर अधिकार करके चार-दीवारी को नष्ट कर देता है। मन को उसके आश्रित देखकर बुद्धि तत्क्षण . नष्ट हो जाती है-मंत्रियों के अभाव में अन्य पुरवासी भी उसको छोड़ देते हैं। इस प्रकार लोभ, क्रोध, मोह और राग इन (प्रबल) शत्रुओं से छिद्र (भेद) पा लेने पर वह राजा नष्ट हो जाता है। मनुष्य की स्मृति का नाश करने वाले ये दुष्टात्मा शत्रु जब प्रवृत्त हो जाते हैं तो राग से क्रोध, क्रोध से लोभ, लोभ से मोह, मोह से स्मृति का नाश, स्मृति के नाश से बुद्धि का नाश हो जाता है और बुद्धि के नाश से मनुष्य ही नष्ट हो जाता है।१६ . ब्रह्माण्ड पुराण में भी जैन दर्शन के समान जगत् के साथ जीव के सम्बन्ध का मुख्य कारण राग ही बताया गया है। उक्त पुराण के अनुसार-“जीवों का प्रबल शत्रु एवं महान् अनिष्टकारक राग है। विषयों में आसक्ति का नाम राग है जिससे मन अपने वश में नहीं रह पाता। विषयों में राग का अर्थ-अनिष्ट को इष्ट, अप्रिय को प्रिय, दुःख को सुख मानते हुए निरन्तर कष्ट भोग में ही प्रसन्नता की अनुभूति करना है। यह विषयानुराग ही जीव को पतन के गर्त में ले जाता है। इस राग के सद्भाव में विवेक का अभाव हो जाता है, जिससे जीव वस्तु की मूलस्थिति नहीं जान पाता और तत्वदर्शन न कर पाने के कारण विविध बन्धनों में बँधता रहता है। मूल तत्त्व को न समझ पाने का अर्थ है-अनित्य संसार को नित्य समझना, दुःख में सुखदृष्टि रखना, अभाव में भावबुद्धि रखना तथा अपवित्र वस्तु को पवित्र मानना। यह विपरीत बुद्धि ही ज्ञान-दोष का कारण है। राग-द्वेष से निवृत्ति अर्थात् अज्ञान से 225 / पुराणों में जैन धर्म