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________________ सुख को संचित करने के भ्रम में व्यक्ति दुःख ही बढ़ाता है। यह स्पष्ट करते हुए मार्कण्डेय पुराण में कथन है—“पहले जब मैं अकेला था तो केवल मेरे ही शरीर से दुःख की उत्पत्ति होती थी, फिर भार्या के आने पर उसके ममत्व में वह दुःख दो भागों में बढ़ गया है, फिर जितनी संतानों की उत्पत्ति होती गई. उतने ही भागों में दुःख बढ़ता गया।" जगत् के अन्य तत्त्वों के समान शरीर को भी अशुचियुक्त बताते हुए अनासक्त रहने की प्रेरणा दी गई है।४ ___इस प्रकार जगत् के प्रति पुराणों का भी यही कथन है कि जगत् अध्रुव तथा अशाश्वत है। जिस प्रकार से आकाश में रहने वाले बादल अथवा समुद्र में बहने वाले तृण हवा के संयोग से मिलते और बिछुड़ते रहते हैं, वैसे ही जगत् में पदार्थों का मिलना तथा छूटना अथवा बनना-बिगड़ना चलता रहता है। संसार का स्वभाव ही दुःखरूप है, उसे कौन विपरीत कर सकता है ? व्यक्ति चाहे जितना प्रयत्न उसको बदलने के लिए करे, परन्तु क्षण-क्षण में बदलने वाले जगत् को वह नहीं बदल सकता, उल्टा वह स्वयं ही काल के वशीभूत होकर इच्छा न होते हुए भी परिवर्तित होता रहता है। जगत् एवं जीव यद्यपि जगत् एवं आत्मा दोनों को जैन तथा पुराण साहित्य में नित्य माना है, फिर भी दोनों (जगत् एवं आत्मा) का संयोग अस्थायी ही माना है। जैन दर्शन के अनुसार-आत्मा को जगत् में जन्म-मरणादि कराने में कर्महेतु है। कर्मों के अनुसार ही आत्माएँ विभिन्न अवस्थाएँ प्राप्त करती हैं। प्रत्येक आत्मा चाहे वह पृथ्वी, जल, वनस्पति आदि स्थावरगत हो या कीट-पतंग, पशु-पक्षीरूप हो अथवा मानव रूप, देवरूप या नारकीरूप हो; तात्विक दृष्टि से समान है, उनमें परस्पर वैषम्य का कारण कर्म है। मकड़ी जैसे अपनी प्रवृत्ति के कारण स्व-निर्मित जाल में फँसती जाती है, वैसे ही अज्ञानवश जीव भी जगत् में मूढ़ रहता है; परन्तु जब उसका विवेक जागृत हो जाता है, तब वह यथार्थ का भान होने पर बंधन हटाने का कार्य करता है। तत्पश्चात् कर्मबन्धन नष्ट हो जाने पर वह मुक्त हो जाता है। सारांशतः जीव का संसार में संसरण तभी तक होता है, जब तक वह मिश्रित अवस्था में रहता है अर्थात् कर्मरूपी जड़ पुद्गलों से युक्त रहता है; किन्तु जब वह अपने ऊपर आच्छादित आवरणों से मुक्त हो जाता है, तब कर्मभार से हल्का हो जाने पर ऊर्ध्वगमन करता है।१५ यही मन्तव्य पुराणों का भी है कि विवेक हो जाने पर आत्मा कर्मों द्वारा बद्ध नहीं होता तथा ध्यान, तपादि द्वारा संचित कर्मों को समाप्त करने के बाद वह संसार में भ्रमण नहीं करता। संसार में उसका भ्रमण कर्मों के कारण ही होता है। आत्मा चैतन्यगुणयुक्त होने पर भी जगत् में मूढ़ कैसे होता है एवं सुरक्षित (मुक्त) कैसे हो सकता है ? इसे मार्कण्डेय पुराण में एक दृष्टान्त द्वारा इस प्रकार से स्पष्ट किया है जगत् - विचार / 224
SR No.004426
Book TitlePuranome Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharanprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2000
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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