________________ और अनन्त उस पुरुष की भी संख्या नहीं है, क्योंकि उस पुरुष का कोई प्रमाण नहीं है। यही कारण है कि उसे अनन्त भी कहते हैं / "2deg इसी प्रकार त्रयोविंशति तत्त्वों से परे प्रकृति एवं पंचभूतों या तेईस तत्त्वों का भी पुराणों में उल्लेख है। अतः अनेक तत्त्वों का उल्लेख होने से पुराणों को बहुतत्त्ववादी भी माना जा सकता है। - जैन दर्शन में भी जगत् को नाना तत्त्वों से युक्त माना है, क्योंकि आत्म-तत्त्व तथा पुद्गलादि अजीवतत्त्व भी अनेक हैं। इन्हीं के आधार पर जगत् है, जीव तथा अजीव दोनों ही तत्त्व मौलिक हैं अर्थात् विश्व के मूल में कोई एक तत्त्व नहीं, वह तो नाना तत्त्वों का सम्मेलन है। इस प्रकार जगत् के एकतत्त्ववादी दृष्टिकोण को जैन दर्शन में अस्वीकृत किया गया है। यद्यपि अन्तिमतः एक ईश्वर को कारण मानने से पुराणों को एकतत्त्ववादी भी कहा जा सकता है, जिसको जैन दर्शन स्वीकार नहीं करता है। किन्तु ईश्वर-कारणता का उल्लेख होते हुए भी पुराणों में निष्कर्षतः तो यही माना गया है कि पुरुष तथा प्रकृति ये दोनों नित्य हैं। इनका निर्माण ईश्वर नहीं करता तथा सृष्टि की उत्पत्ति इन दोनों तत्त्वों के संयोग से ही होती है। आत्मा ही नहीं प्रकृति, जो कि सृष्टि का प्रधान कारण है, नित्य, अक्षय, अजर और अपरिमेय है-२२ प्रधानं कारणं यत्तदव्यक्ताख्यं महर्षयः / .. यदाहुः प्रकृति सूक्ष्मां नित्यां सदसदात्मिकाम् / / दैव या ईश्वर के विश्वनिर्माता या नियन्ता होने की अवधारणा के स्थान पर जैन सिद्धान्त के अनुसार जगत् अनादिकालीन है। उसका नियन्त्रण या सर्जन प्राणियों के कर्म से होता है, अन्य किसी कारण से नहीं। इस सिद्धान्त का समर्थन करते हुए पुराणों का भी यही मन्तव्य है कि “भौतिक जगत् की सर्ग स्थिति कर्माधीन है और वही इसका नियामक है, यह कर्म ही जगत् का अव्यक्त कारण है। जिस प्रकार से सूक्ष्म बीज के अभ्यन्तर विशाल वृक्ष की उत्पत्ति सन्निहित होती है, उसी प्रकार कर्म में जगत् की रचना समाहित रहती है / 233 जगत् का भौगोलिक वर्णन .. सम्पूर्ण लोक का वर्णन करते हुए जैनागमों के अनुसार-यह समस्त संसार तीन भागों में विभक्त है-ऊर्ध्वलोक, तिर्यक् लोक तथा अधोलोक / समस्त लोक चौदह रज्जु प्रमाण है। ऊर्ध्वलोक-मध्यलोक के ऊपर कुछ कम सात रज्जु प्रमाण विस्तार वाला ऊर्ध्वलोक है, इसमें देवताओं के निवास स्थान हैं। - तिर्यक् लोक-ऊर्ध्वलोक के नीचे तथा अधोलोक के ऊपर 18 सौ योजन प्रमाण तिर्यक् लोक है। तिर्यक् लोक में मनुष्य और तिर्यंचों की अवस्थिति है। . 227 / पुराणों में जैन धर्म