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________________ (सामूहिक) भिक्षाचर्या करे, वह उच्च (समृद्ध) और नीच (असमृद्ध न कि बुगुप्सित) सभी कुलों में जाए। नीचकुल (घर) को छोड़कर (लांघकर) उच्चकुल में न जाए। . पुराण तथा जैनधर्म दोनों में ही श्रमण को भिक्षा अनासक्तभाव से ग्रहण करने का तथा प्राप्ति और अप्राप्ति में प्रसन्न या अप्रसन्न न होकर समभाव में ही रहने का निर्देश है। श्रमण (संन्यासी) की आन्तरिक वृत्ति ... जैसा कि मनुस्मृतिकार ने कहा है-उपर्युक्त सभी उपाय (बाह्याचार) मुनि को सम्यग्दर्शन प्राप्त करने में सहायक होने के कारण बाह्य हैं, क्योंकि कर्मबंधन से मुक्त होने का एक मात्र उपाय सम्यग्दर्शन ही है। इसके अभाव में बाहाचार आडम्बर मात्र रह जायेंगे। जैन दर्शन में तो धर्म-साधना का प्राणतत्त्व ही सम्यग्दर्शन (सम्यक्त्व) है। श्रमण हो या श्रावक सभी के लिए यह प्रमुख गुण है। सम्यक्त्वी (सम्यग्दर्शन-सम्पन्न) के लिए प्राकृत शब्द है-सम्मतदंसी, जिसके तात्पर्य तीन होते हैं-समत्वदर्शी, सम्यक्त्वदर्शी एवं समस्तदर्शी। इस प्रकार इस विवेक-बुद्धि को सतत जागृत रखने का निर्देश दिया गया है। मुनि के लिए यह प्रमुख गुण है। जैनागमों में भिक्षु को संयम मार्ग में आने वाले सभी कष्टों को समभाव से सहन करने वाला कहा है। वह समदर्शी होकर अपने तथा पर के तथा मिट्टी व स्वर्ण की भेदबुद्धि से परे होता है। जो लाभ-अलाभ, सुख-दुःख, जीवन-मरण, मान-अपमान में समभाव रखता है, वही वस्तुतः मुनि है। संक्षेप में श्रमणत्व का सार ही उपशम है।६।। सम्यग्दर्शन को पुराणों में भी पर्याप्त महत्त्व दिया गया है—“सम्यग्दर्शनसम्पन्न: स योगी भिक्षुरुच्यते” अर्थात् सम्यग्दर्शन-सम्पन्न भिक्षु योगी कहा जाता है। पूर्ववत् ही संन्यासी को शत्रु-मित्र, मानापमान में समभाव रखने वाला बताया गया है। वह इष्ट संयोग में प्रसन्न तथा अनिष्ट संयोग में उद्विग्न न होकर सम बना रहता है। बिष्णु पुराण के अनुसार मोक्ष का एक मात्र उपाय चित्त को समदर्शी बनाना है। भोजन के विषय में स्वादु-अस्वादु का विचार ही कैसा? बताओ, ऐसा पदार्थ कौनसा है जो आदि, मध्य और अन्त तीनों ही समय में रुचिकर प्रतीत हो? सभी परिवर्तनशील है। इसी विषय को मार्कण्डेय पुराण में भी बड़े सुन्दर ढंग से समझाया है कि सत्-असत् रूप और गुण-अगुण रूप यह संसार जिसके लिए आत्ममय बन गया, उस (योगी) के लिए कौन प्रिय है? और कौन अप्रिय है? ___ इस प्रकार पुराण तथा जैन धर्म दोनों में श्रमण का मुख्य गुण समत्व ही माना है। समत्व से ही क्षमा भी आती है। इसीलिए गीताकार ने समत्व को सबसे बड़ा योग कहा है-"समत्वं योग उच्यते।” इस समत्व को धारण करने वाला ही विशेष आचार / 194
SR No.004426
Book TitlePuranome Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharanprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2000
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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