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________________ जाने वाली भिक्षा दीनवृति कहलाती है।६७वी पौरूषनी भिक्षा का उद्देश्य केवल स्वार्थ होता है; यह पंचेन्द्रिय विषयासक्त भोगपरायण आलसी लोगों को दी जाने वाली भिक्षा है जो पुरुषार्थ का नाश कर अकर्मण्य बनाती है। सर्वसंपत्करी भिक्षा वह है जो श्रमण-अदीन, मर्यादापूर्वक (नियमानुकूल) संयम पालन हेतु ग्रहण करते हैं। उसमें देह को पुष्ट बनाने की या प्रमाद की भावना तथा मिलने पर प्रसन्नता, रूक्ष मिलने पर या न मिलने पर रुष्टता का भाव नहीं होता। धर्म कार्य के हेतुभूत शारीरिक आवश्यकता के लिए ग्रहण की जाने वाली यह भिक्षा देने वाले तथा लेने वाले दोनों के लिए कल्याणदायक होने से इसे सर्वसंपत्करी कहा है। पुराणों में इसे (न्यायपूर्वक भिक्षाचरण को) तपस्या से भी श्रेष्ठ बताया है। जैनागमों में भी इसे तप की श्रेणी में रखा गया है, क्योंकि यह भी कोई आसान कार्य नहीं है, याचना को भी परिषह माना है।६८ . भिक्षा लेने के सम्बन्ध में पुराण तथा जैन धर्म में कुछ मर्यादाएँ बनाई गई हैं, जिसका उद्देश्य मुख्यत: यही है कि उनके भिक्षा लेने से किसी को कष्ट न हो। पुराणों में इसके मुख्य नियम अग्रलिखित हैं.. अहिंसक योगी को आदरपूर्वक दिये गये निमंत्रण में, आतिथ्य, यात्रा, महोत्सव, श्राद्ध तथा यज्ञादि में भोजन नहीं ग्रहण करना चाहिए, वह्नि के विधूम हो जाने पर तथा अंगारों से रहित हो जाने पर (शीतल हो जाने पर), घर के समस्त सदस्यों के भोजन कर लेने पर योगी को एक नहीं, अनेक घरों से भिक्षा प्राप्त करनी चाहिए। वह भी प्रतिदिन उन्हीं घरों से नहीं। भिक्षा इस प्रकार से ग्रहण करे जिससे अवमान तथा धर्म दूषित न हो। भिक्षा की तीन वृत्तियाँ हैं 1. शील सदाचारयुक्त गृहस्थों से भिक्षा लेना, 2. मध्यवृत्ति-श्रद्धावान् गृहस्थों से भिक्षा लेना, 3. जघन्यवृत्ति (इनसे भिन्न) नीच विवर्णों से भिक्षा लेना। भिक्षा ग्रहण करते हुए मन में समभाव रखना है।६९ - लगभग इसी प्रकार से जैनागमों का भी नियम बताते हुए कहा गया है कि श्रमण, आहारादि इस प्रकार से ग्रहण करे, जैसे भ्रमर फूलों का रस लेता है। अर्थात् भ्रमर केवल एक ही फूल से पूरा रस ग्रहण नहीं करके अनेक पुष्पों से लेता है जिससे वह स्वयं भी तृप्त हो जाता है तथा पुष्प भी पीड़ित नहीं होता। आशय यह है कि श्रमण अनेक घरों से मर्यादानुसार, आहारादि लेते हैं। पूर्ववर्णित भिक्षा की तीन वृत्तियों के स्थान पर कहा गया है कि श्रमण को श्रद्धायुक्त जो गृहस्थ हो उनसे ही भिक्षा लेनी चाहिए। यहाँ तक कि दो में से एक सदस्य को भी देने की इच्छा न हो तो न ले।" यहाँ भी कुछ लोग जो पतित, अप्रीतिकर तथा नीचकार्यादि करने वाले हों, ऐसे कुलों में जाने का निषेध करते हुए साथ ही कहा गया है-भिक्षु सामुदायिक . 193 / पुराणों में जैन धर्म
SR No.004426
Book TitlePuranome Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharanprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2000
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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