________________ पुराणों के अनुसार-संन्यासी एक ही स्थान पर नहीं रहता, एक ही स्थान पर रहने से विशेष आसक्ति हो जाती है। इसी दोष के परिहार के लिए वह एकाकी विचरण करता है। केवल वर्षाकाल के चार माह तक वह एक ही स्थान पर निवास करता है।५८ वर्षाकाल के अतिरिक्त आठ महीनों में संन्यासी आत्म तत्त्व का चिंतन करता हुआ सर्वत्र विचरण करता रहता है। घूमने के कारण ही संन्यासी परिव्राजक कहे जाते हैं। जैनागम भी मुनि के प्रवास के सन्दर्भ में इसी प्रकार से आचार संहिता निर्धारित करते हैं। तदनुसार साधु को सतत विचरणशील, भारंड पक्षी के समान अप्रमत्त होकर विचरण करने वाला बताया है।५९ चातुर्मास के अतिरिक्त एक मर्यादित अवधि में ही रहने का विधान किया गया है। जिस प्रकार जैन परंपरा में श्रमण के लिए गृह निर्माण, अग्नि का समारंभ हो नहीं, अनुमोदन भी नहीं करने का कहा गया है, उसी प्रकार पुराणों में भी कहा गया है कि संन्यासी कहीं भी अपना घर बनाकर न रहे, केवल भिक्षा प्राप्त करने के लिए ही गाँव में जाये। वे अपने घर को त्याग देते हैं, बाद में अपने लिए कोई घर नहीं बनाते हैं, अतः वे भ्रमणशील होते हैं।६१ एकान्त में या अरण्य में निवास करते हैं, सभी प्रकार के आरम्भों का परित्याग संन्यासी को सर्वप्रथम करना चाहिए।१२ इस प्रकार इस आश्रम में वह लौकिक अग्निरहितं तथा गृहरहित होकर रहता है। जैन श्रमणवत् ही सवारी (वाहन) का प्रयोग भी निषिद्ध बताया गया है।६३ जैन परंपरा के समान ही पुराणों में जीवन धारण के लिए आवश्यक कर्मों के अतिरिक्त अनावश्यक कर्मों को संन्यासी त्याग देता है। आवश्यक कार्य भी विवेकपूर्वक करता है। संन्यासी के लिए यज्ञ श्राद्धादि किसी भी कर्म का विधान नहीं है, अपितु ऐसे स्थानों पर जाने का भी संन्यासी के लिए निषेध करते हुए कहा गया है कि योग के वेता को कभी किसी श्राद्ध और हिंसाजनक यज्ञ, यात्रा और महोत्सव आदि में सम्मिलित नहीं होना चाहिए। जिस प्रकार पौराणिक संन्यासी के लिए लकड़ी, मिट्टी या तुम्बी निर्मित पात्र लेने का तथा धातुपात्र नहीं लेने का विधान है, उसी प्रकार जैनागम आचारांग सूत्र में भी कहा गया है कि तुम्बे का पात्र, लकड़ी का पात्र और मिट्टी का पात्र-इन तीनों प्रकार के पात्र साधु ग्रहण कर सकता है। साथ ही बहुमूल्य पात्र ग्रहण करने का निषेध किया है। इन वस्र पात्रादि में ममत्व भाव (आसक्ति) भी वर्ण्य बताया गया है। श्रमण (संन्यासी) का भिक्षुक धर्म भिक्षा के प्रकार ‘हरिभद्रीय अष्टक प्रकरण' में इस प्रकार से बताये गये हैं-पौरूषघ्नी, सर्वसंपत्करी। इसके अतिरिक्त दीन-हीन, अनाथ, अपाहिजों को दी विशेष आचार / 192