SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 211
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तथा राजपिण्ड का उल्लेख पुराणों में दृष्टिगोचर नहीं होता है। कृतिकर्म कल्प के समान ही पुराणों में संन्यास (दीक्षा) में ज्येष्ठ संन्यासी के आने पर उनका सम्मान करने का विधान है।" व्रत कल्प के अन्तर्गत जैन परंपरा में वर्णित पंचमहाव्रतों की तुलना पुराणों में वर्णित पाँच यमों से हो सकती है। ज्येष्ठ कल्प के समान ही पुराणों में भी (संन्यास में) ज्येष्ठ, बड़े का वंदनादि विहित है।४६ प्रतिक्रमण कल्प का तो नहीं, परन्तु उससे मिलते-जुलते रूप प्रायश्चित्त का विधान दृष्टिगोचर होता है तथा सन्ध्या के द्वारा भी आचारित पापों के क्षय के लिए प्रभु से अभ्यर्थना की जाती है। मास कल्प का भी विधान करते हुए पुराणों में संन्यासी के 4 माह (आषाढ पूर्णिमा से लेकर 4 माह) तक एक ही स्थान पर ठहरने का एवं शेष समय में एक स्थान पर ज्यादा न रुकते हुए भ्रमण करने का उल्लेख है।८ पर्युपासनकल्प का उल्लेख दृष्टिगत नहीं होता है। 5. अनाचार-निषेध-जैनागमों में श्रमण मर्यादा में निम्नलिखित अनाचार सेवन निषिद्ध बताये गये हैं-औद्देशिक-अपने निमित्त बना आहारादि ग्रहण करना, अपने निमित्त खरीदा गया या सामने लाया हुआ आहारादि, रात्रि भोजन, स्नान, गंधलेपन, माल्यधारण, बीजन (पंखादि), सन्निधि (संचय), गृहस्थ के पात्र में भोजन करना, गरिष्ठ आहार, गृहस्थ से शारीरिक सेवा करवाना, दंतप्रधावन, सम्मृच्छन, दर्पणादि में देह प्रलोकन, शतरंजादि खेल, छत्रधारण, उपानहधारण, चिकित्सा, अग्निसमारंभ, शिल्पादि से आजीविका, संसार का स्मरण, सचित्त आहार, वमन, विरेचन, अंजन, उबटन, गात्रा-भ्यंग विभूषा आदि।४९ . इनमें से भी लगभग कई अनाचारों का पुराणों में भी मुनि के लिए निषेध है-यथा भागवत में मुनि के लिए ही नहीं, अपितु ब्रह्मचारी के लिए भी गंध, माल्य, उबटन, अंजन, जूते तथा छत्रधारण का निषेध किया है।° गृहस्थ से धन लेना, कृषि या वाणिज्य व्यापार करना संन्यासी के लिए त्याज्य है।५२ दंतप्रधावन स्नान, अलंकारादि शरीरादिक विभूषा भी अनाचरणीय है।५३ संन्यासी की भिक्षा विधि से, उसके उद्देश्य से निर्मित भिक्षा का तथा निमंत्रित होकर भिक्षा ग्रहण करने का निषेध है। संन्यासी अग्नि समारंभ एवं गृह से रहित होने के कारण निरग्नि तथा अनिकेत कहलाता है। इसी प्रकार रोगादि में समत्व रखते हुए चिकित्सावर्जन एवं आहारादि में भी समत्व का उल्लेख है'६ तथा रात्रि भोजन भी सर्वथा निषिद्ध है।५७ / मुनि का प्रवास-निवासादि - मुनि के आवास एवं प्रवास आदि के सम्बन्ध में कुछ मर्यादाएँ पुराण तथा जैन धर्म में बनाई गई हैं। उनमें भी परस्पर पर्याप्त समानता विद्यमान है। 191 / पुराणों में जैन धर्म
SR No.004426
Book TitlePuranome Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharanprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2000
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy