________________ 3. समन-माया-निदान-मिथ्यात्व-इन तीन शल्यरूप ताप से रहित जिसका मन है, वह “समन” कहा जाता है। 4. समण-जो शत्रु और मित्र में अर्थात् संसार के समस्त प्राणियों में समान व्यवहार करता है, वह समण कहलाता है।" साधुधर्म के प्रमुख आचार 1. पंच महाव्रत/यम-जिस प्रकार से जैन परंपरा में श्रमण के लिए अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह-इन पाँच महाव्रतों का पालन आवश्यक है; उसी प्रकार से इन्हीं पाँचों को यम के रूप में संन्यासी के लिए अनिवार्य रूप से पालनीय बताया गया है / 26 2. पाँच समिति एवं तीन गुप्ति—जैन परंपरा में श्रमण की जीवनचर्या में होने वाली सभी क्रियाओं में विवेक की जागृति आवश्यक बताते हुए इन 5 समितियों का विधान बताया गया है(१) ईर्यासमिति (चलने-फिरने में अर्थात् आवागमन की क्रियाओं में सावधानी), (2) भाषा समिति (भाषा सम्बन्धी मर्यादा), (3) एषणा समिति (आहार आदि ग्रहण करने की मर्यादाओं का पालन), (4) आदान निक्षेप (पदार्थ लेने व रखने में सावधानी), (5) परिष्ठापनिका-मल-मूत्रादि विसर्जन सम्बन्धी विवेक। तीन गुप्तियाँ हैं—मन, वचन एवं काय (शरीर) का संयम।" इनमें से पुराणों में भी आवागमन, भाषा एवं भिक्षा के सम्बन्ध में कई नियम (मर्यादाएँ) बताये गये हैं।३८ आदान निक्षेप एवं परिष्ठापनिका का उल्लेख दृष्टिगोचर नहीं होता है एवं तीनों गुप्तियों के अन्तर्गत आगत मानसिक, वाचिक एवं कायिक संयम का भी विधान पुराणों में संन्यासी के लिए किया गया है।३९ 3. दस धर्म-जैनागमों में 10 प्रकार के श्रमण धर्म प्रतिपादित हैं—क्षमा, मुक्ति, आर्जव, मार्दव, लाघव, सत्य, संयम, तप, त्याग, ब्रह्मचर्यवास। इन दस धों को पुराणों में कितना महत्त्व दिया गया है, यह सामान्य आचारों से भी स्पष्ट हो जाता है तथा गुण के रूप में इनको संन्यासी के लिए आवश्यक बताया गया है। ___ 4. कल्प-विधान-जैन परंपरा में श्रमण के लिए इन 10 कल्पों का विधान किया गया है-आचेलक्य, औदेशिक,शय्यातर, राजपिंड, कृतिकर्म,व्रत, ज्येष्ठ,प्रतिकमण मास तथा पर्युपासनकल्प। इनमें से भी कई नियमों का पौराणिक संन्यासी के लिए विधान है। आचेलक्य कल्प का विधान करते हुए पुराणों में संन्यासी के लिए निर्वसन अथवा जीर्ण-शीर्ण, अल्प वस्र धारण करने का निर्देश है।४२ औद्देशिक कल्प की झलक हम पुराणों में वर्णित संन्यासी की भिक्षा विधि में देख सकते हैं। शय्यातर विशेष आचार / 190