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________________ स्थितप्रज्ञ हो सकता है क्योंकि वह किसी भी परिस्थिति में अपनी बुद्धि को स्थिर रखता है, अपनी आस्था को अडिग रखता है। इसके अलावा निस्पृहता, निरभिमानता आदि भी कई गुण श्रमण के लिए आवश्यक बताये गये हैं। स्थितप्रज्ञ, तत्त्वदृष्टा होने से वह आश्चर्यचकित भी नहीं होता। अंगीकरण का समय प्रारम्भ में वर्णित आश्रमों में यह चतुर्थ तथा अन्तिम आश्रम है। भारतीय दर्शन की प्रमुख दो परंपराओं में इस विषय पर मतभेद है। ब्राह्मण परंपरा (आस्तिकतंत्र) के अनुसार जीवन के अन्तिम भाग में संन्यास ग्रहण करना चाहिए, जबकि श्रमण परंपरा के अनुसार पहले भी श्रमण-अवस्था अंगीकार की जा सकती है। डॉ. विंटरनिट्ज ने कहा है “आस्तिक तंत्रों के मत से केवल आश्रम व्यवस्था के अनुसार ही चलना चाहिए जिसमें आर्य को वानप्रस्थी या संन्यासी होकर संसार से विरक्त होने का विधान केवल तभी है, जब पहले वह ब्रह्मचारी होकर वेदाध्ययन कर चुका हो' एवं गृहस्थाश्रम में प्रवेश करके पुत्रोत्पत्ति कर चुका हो।” मनुस्मृति तथा याज्ञवल्क्यस्मृतिकार का भी यही मत है। किन्तु सभी ने यह विधान पूर्णतः स्वीकृत नहीं किया। जाबालि ऋषि के अनुसार सामान्य विधि यही है जो मनु और याज्ञवल्क्य ने निरूपित की है, तथापि कोई चाहे तो प्रथम या दूसरे आश्रम से भी चतुर्थाश्रम में जा सकता है। उदाहरणस्वरूप हम शंकराचार्य, अष्टावक्र आदि को देख सकते हैं। पूर्वोक्त दोनों मतों का वैषम्य महाभारत के "पिता-पुत्र संवाद के नाम से प्रसिद्ध अध्याय में बड़े रोचक ढंग से दिखाया गया है। उसमें पिता, जो ब्राह्मण संस्कृति का प्रतिनिधि है, कहता है कि संन्यास आश्रम-व्यवस्था के अन्त में आना चाहिए, लेकिन वह अपने पुत्र से हार जाता है जो कहता है कि जीवन की अनेक अनिश्चितताओं को देखते हुए ऐसी लम्बी-चौड़ी व्यवस्था में फँसना अत्यन्त मूर्खतापूर्ण है।" जैन परंपरा इसी मत की समर्थक है, जिसको पुराणों में भी मान्य किया गया है। कूर्मपुराण का इस सन्दर्भ में कथन है कोई भी पुरुष जिसको ज्ञान और विज्ञान प्राप्त हो गया है और फिर वैराग्य हो जावे तो वह ब्रह्मचर्याश्रम से ही, जो सबसे प्रधान है, प्रवजित हो जावे। गृहस्थाश्रम में प्रवेश करके यजन तथा पुत्रोत्पत्ति करके फिर यदि विरक्ति हो जावे तो संन्यासी हो जाना चाहिए। गृही विधिपूर्वक यज्ञादि न करके भी पुत्रोत्पत्ति न करके भी घर में ही संन्यास धारण कर लेता है। इसके उपरांत वैराग्य के वेग से जब घर में रहने का उत्साह ही नहीं रहे तो उसे द्विजोत्तमों की इष्टि न करके भी वहीं संन्यास धारण कर लेना चाहिए। इसका निष्कर्ष यही है कि जब भी वैराग्योदय हो जाये, तभी संन्यास लिया जा सकता है। विरक्ति की पृष्ठभूमि संन्यासाश्रम के लिए अनिवार्य है। 195 / पुराणों में जैन धर्म
SR No.004426
Book TitlePuranome Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharanprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2000
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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