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________________ यथार्थत: उच्चता (महत्ता) आचार से ही प्राप्त होती है, जन्म से उसका सम्बन्ध कैसे जुड़ सकता है? न केवल जन्म से ही अपितु बाह्य परिवेश से भी उच्चता को जोड़ना युक्तियुक्त नहीं है, केवल सिर मुण्डाने से ही कोई श्रमण नहीं होता, ओम् का उच्चारण करने से ब्राह्मण नहीं होता, अरण्यवास करने से मुनि नहीं होता, कुश का बना चीवर पहनने मात्र से कोई तपस्वी नहीं होता, वस्तुतः समभाव से श्रमण होता है, ब्रह्मचर्य से ब्राह्मण होता है, ज्ञान से मुनि होता है तथा तप से तपस्वी होता है। जैन संस्कृति की इस मान्यता का पुराणों में भी समर्थन है। उनके अनुसार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये चार वर्ण, कार्य की सुविधा की दृष्टि से बनाये गये हैं, बड़े-छोटे की दृष्टि से नहीं।" महाभारत के समान ही भागवतकार का भी यही मत है कि प्रारम्भ में एक ही वर्ण था। पश्चात् कर्मों के अनुसार वर्ण बने, अतः वर्णों की कोई विशेषता नहीं है। जिस प्रकार कर्तव्यों के आधार हैं, उसी प्रकार पुराणों में निर्धारित हैं। जैसे ब्राह्मणों के प्रकार, आचार के आधार पर विश्लेषित करते हुए उनमें गुणों के आधार पर न्यूनाधिकता बताई है 1. जन्मना ब्राह्मण जो सब प्रकार से क्रियाहीन हो, वह ब्राह्मण मात्र कहलाता 2. एकोद्देश्य का अतिक्रमण करके जो वेदाचार वाला तथा परम सरल होता है, वह ब्राह्मण कहा आता है। 3. परम विभूत, सत्य बोलने वाला, वेद की एक शाखा का षडंग कला सहित ____ अध्ययन करके षट् कर्मों में निरत धर्म का वेत्ता “श्रोत्रिय” कहा जाता है। 4. वेदवेदांग का पूर्ण ज्ञाता, शुद्ध आत्मा वाला, पापों से रहित परम श्रेष्ठ श्रोत्रियवान्, प्राश्र “अनुचान” कहा गया है। 5. अनुचान के समस्त गुणों से सुसम्पन्न, यज्ञ, स्वाध्याय में यन्त्रित “भ्रूण” कहा जाता है। 6. शेषभोजी, इन्द्रियों को अपने वश में रखकर जीत लेने वाला, वैदिक लौकिक सभी का ज्ञाता, आश्रम में स्थित, सदा अपने पर पूर्ण नियन्त्रण रखने वाला “ऋषिकल्प” कहा जाता है। 7. ऊर्ध्वरेता, नियत अशन करने वाला, संशय रहित, शापानुग्रह में पूर्ण शक्ति वाला, सत्य प्रतिज्ञा वाला “ऋषि” कहलाता है। 8. सभी प्रकार की प्रवृत्तियों से निवृत्त रहने वाला, सब प्रकार के तत्त्वों का पूर्ण ज्ञाता, काम और क्रोध से रहित, ध्यान में स्थित रहने वाला, निष्क्रिय, परम दमनशील तथा मिट्टी और स्वर्ण दोनों में समान भावना रखने वाला “मुनि” कहा जाता है / 13 183 / पुराणों में जैन धर्म
SR No.004426
Book TitlePuranome Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharanprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2000
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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