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________________ व्यवस्था के नियम इतने कठोर थे कि उसमें शूद्र को निम्न तथा पशु से भी बदतर समझा जाता था। ऐसा कोई अधिकार उसे नहीं दिया था जिसके द्वारा वह न्यायालय में जाकर न्याय से अपनी रक्षा कर सके। जन्मना जातिवाद की इन व्यवस्थाओं के विपरीत पुराणों में जैन संस्कृति के समान गुणों एवं कर्तव्यों को भी महत्त्व दिया है। मात्र जन्म को ही उच्चता या नीचता का आधार न मानते हुए कर्तव्यों पर आधारित वर्ण-विचारधारा जैन परंपरा से पर्याप्त साम्य रखती है। जैन परंपरा के अनुसार-वर्ण भेद मात्र कर्त्तव्य कर्मों के कारण है। उसमें उच्चता-नीचता का कोई सम्बन्ध नहीं है। भगवान महावीर का स्पष्ट कथन है कि जीवन की महत्ता और उच्चता तो केवल तपश्चर्या से प्राप्त की जाती है न कि जाति से. मानव में जाति की कोई जन्मगत विशिष्टता दृष्टिगोचर नहीं होती सव्वं खु दीसई तवो विसेसो * न दीसइ जाइ-विसेस कोइ॥ कर्मगत जातिवाद के अनेक उल्लेख जैन शास्रों में पाये जाते हैं कम्मुणा बम्हणो होइ कामुणा होइ खत्तिओ। वइसो कम्मुणा होइ सुद्दो होइ कम्मणा / / अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र सभी कर्म से ही होते हैं। वस्तुतः आचारभेद ही जातिभेद का आधार है। गुणों की विशिष्टता से जाति मानी जाती है। गुणों के नष्ट हो जाने पर जाति भी नष्ट हो जाती है गुणैः सम्पद्यते गुणध्वंसैर्विपद्यते गुणों के आधार पर जैन परंपरा में भी ब्राह्मण शब्द सम्मानित है। ब्राह्मण किसको कहते हैं, इस सम्बन्ध में विस्तृत विवेचन किया गया है। जिसके अनुसार जो अग्नि के समान सदा तेजस्वी है, जो प्रिय स्वजनादि के आने पर उनमें अनुरक्त नहीं होता एवं जाने पर शोक नहीं करता, जो आर्यवचन में रमण करता है, शुद्ध किये गये जातरूप सोने की तरह विशुद्ध राग-द्वेष और भय से मुक्त, तपस्वी, कृश, दान्त (इन्द्रियों का दमन करने वाला), सुव्रत होता है तथा जो वस तथा स्थावर जीवों को सम्यक् प्रकार से जानकर मन, वचन और काया से उनकी हिंसा नहीं करता, क्रोध, हास्य, लोभ या भय से झूठ नहीं बोलता, जो सचित या अचित थोड़ा या अधिक अदत्त नहीं लेता, जो देव, मनुष्य और तिर्यञ्च सम्बन्धी मैथुन का मन, वचन और शरीर (त्रिकरण-त्रियोग) से सेवन नहीं करता-जैसे जल में उत्पन्न कमल कीचड़ से लिप्त नहीं होता वैसे ही जो काम भोगों से अलिप्त रहता है, जो रसादि में लोलुप नहीं है-निर्दोष भिक्षा से जीवन निर्वाह करता है, जो गृहत्यागी, अकिंचन (निष्परिग्रही), गृहस्थी में अनासक्त होता है, उसे ब्राह्मण कहा गया है। विशेष आचार / 182
SR No.004426
Book TitlePuranome Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharanprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2000
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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