________________ आचार सिद्धान्त : विशेष आचार विशेष आचार से तात्पर्य—जिस आचार का सभी जन पालन नहीं करते, ऐसा व्यक्ति विशिष्ट का या वर्ग विशेष का आचार विशेष आचार है। पुराणों में विशेष आचार वर्णाश्रम धर्म-वर्णन के सन्दर्भ में विवेचित है। वर्ण-व्यवस्था में सभी वर्गों के पृथक्-पृथक् कर्तव्य निर्धारित किये गये हैं एवं आश्रम धर्म में सभी आश्रमों की आचार-प्रणालियाँ निर्दिष्ट हैं। जिस प्रकार वर्ण-व्यवस्था सम्पूर्ण मानव समाज को चार भागों में विभक्त करती है, उसी प्रकार आश्रम व्यवस्था भी एक ही व्यक्ति का सम्पूर्ण जीवन चार भागों में विभाजित करती है। वर्ण-व्यवस्था __समाज तथा व्यक्ति में वैसा ही सम्बन्ध है, जैसा शरीर और अंगोपांगों में, शरीर की सुरक्षा उसके अंगोपांगों की सुरक्षा पर निर्भर है और अंगोपांगों की सुरक्षा शरीर की सुरक्षा पर। इसी विचार से प्रेरित होकर मनीषियों ने प्राचीन काल में समाज की स्थापना के साथ ही मानव जाति को चार भागों में विभक्त किया था। उस वर्गीकरण में उच्च-नीच की भावना न होकर लौकिक कर्त्तव्य का ही आधार था, जैसे पारिवारिक सदस्य अपने कार्यों का बँटवारा कर लेते हैं। किन्तु बाद में उसमें नाना प्रकार की विकृतियों का प्रवेश होता गया। जैन एवं वैदिक वर्ण-विवेचन में मुख्य अन्तर यह है कि जैन परं / के अनुसार वर्ण-सामाजिक व्यवस्था के लिए बनाये गये हैं एवं धार्मिक अधिकार : येक मानव को है। इस सामाजिक व्यवस्था के संस्थापक ऋषभदेव थे।' जबकि वैदिक परंपरानुसार ब्रह्मा के मुख से ब्राह्मणों की उत्पत्ति हुई, अतः यजन-याजन उनका पवित्र कार्य है / क्षत्रिय उनके बाहु से उत्पन्न हुए, अंतः रक्षा उनका कर्तव्य है। उदर से उत्पन्न वैश्यों का व्यवसाय (व्यापार) कर्तव्य है तथा पाँवों से उत्पन्न शूद्रों का उच्च वर्गों की सेवा करना, कार्य बताया गया है। इसके अन्तर्गत सभी प्रकार के धार्मिक अधिकार उच्च वर्गों के हस्तगत होने का उल्लेख है। शूद्रों द्वारा वेद श्रवणादि करने पर उन्हें कठोर सजाएँ दी जाती थीं। इतना ही नहीं, वर्ण 181 / पुराणों में जैन धर्म