________________ उपर्युक्त ब्राह्मण की अष्टविधाओं में गुणों के आधार पर पृथक् संज्ञाएँ प्रदान की गई हैं। इसी प्रकार चाण्डाल के भी पाँच प्रकार वर्णित हैं 1. जो अपने पर किये हुए उपकार को नहीं मानता है। 2. जो अनार्य होता है। 3. जिसमें बहुत लम्बे समय तक रोष विद्यमान रहता है। 4. जो सरलता से रहित अर्थात् सदा कुटिल वृत्ति वाला होता है। 5. जो चाण्डाल जाति से समुत्पन्न होता है।१४ गुणों के आधार पर वर्ण का महत्त्व निर्धारित करते हुए एवं जन्मना जाति के अप्रामुख्य को निरूपित करते हुए कहा गया है-“षडंग का कितना ही अच्छा ज्ञाता द्विज भी क्यों न हो, परन्तु यदि वह दमशील नहीं है तो कभी भी पूज्य नहीं हो सकता।" जो सत् तथा श्रोत्रिय कुल में उत्पन्न हुए हैं, किन्तु क्रिया से हीन हैं वे कभी पूजित नहीं हो सकते। तथा जो असत्कुल तथा असत्क्षेत्र में समुत्पन्न हुए हैं, वे भी अपने त्याग एवं तपश्चर्या की उच्चतर क्रिया द्वारा जगत्पूज्य हो गए जैसे व्यास, वैभाण्डक, क्षत्रियकुलोत्पन्न महर्षि विश्वामित्र, वेश्या से समुत्पन्न महामुनि वशिष्ठ इत्यादि / 16 भगवद्भक्ति के द्वारा चाण्डाल भी ब्राह्मण से बढ़कर हो सकता है तथा ईश्वरभक्तिविहीन होने पर ब्राह्मण भी चाण्डालाधम हो सकता है।"९७ निष्कर्षतः पुराणों तथा जैन साहित्य में वर्ण-व्यवस्था का महत्त्व लौकिक व्यवहारों के लिए (सामाजिक व्यवस्था के सन्दर्भ में ही) है, किन्तु धार्मिक व आध्यात्मिक धरातल पर नहीं। वर्ण की उच्चता एवं निम्नता' भी जन्म से न होकर कर्म से है। गोत्रों में जन्म लेने मात्र से न कोई आत्मा हीन होता है और न कोई महान् / “यह अनेक बार उच्च गोत्र तथा नीच गोत्र का अनुभव कर चुका है, यह जानकर कौन गोत्रवादी, मानवादी होगा?"१८. आश्रम-व्यवस्था (आश्रम धर्माचार) आश्रम-व्यवस्था का पुराणों में बहुत महत्त्व है। उनमें वर्णित प्रत्येक आश्रम के पृथक्-पृथक् कर्तव्य उल्लिखित किये जा रहे हैं 1. ब्रह्मचर्याश्रम-जीवन के प्रथम चौथाई भाग में ब्रह्मचर्याश्रम में रहे। अखण्ड ब्रह्मचर्यपूर्वक गुरु संरक्षण में विद्या और कला का अभ्यास करे और अगले जीवन की तैयारी करे। 2. गृहस्थाश्रम-दूसरे भाग में दारपरिग्रह करके दाम्पत्य जीवन व्यतीत करे और पितृऋण से मुक्त होने के लिए पुत्रोत्पत्ति करे। विशेष आचार / 184