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________________ से तिराने वाला है, वह तीर्थ (धर्म तीर्थ) है। इस धर्म तीर्थ के संस्थापक को तीर्थंकर कहा जाता है। धर्मसम्पन्न होने से साधु, साध्वी, श्रावक एवं श्राविकारूप चतुर्विध संघ को भी तीर्थ कहा जाता है तथा पुराणवत् आन्तरिक वीर्थ भी वर्णित है। अकलुषित आत्मा को प्रसन्न करने वाली शुभ लेश्या (भाव) रूप धर्म जलाशय और ब्रह्मचर्य रूप शांतितीर्थ है जहाँ स्नान करके विशुद्धि और शीतलता प्राप्त करके पाप हरते हैं। तत्व-ज्ञानियों ने यह स्नान देखा है, यही महास्नान है जिसकी ऋषियों ने प्रशंसा की है, इसी में स्नान करके महर्षि लोग विमल और विशुद्ध होकर उत्तम स्थान को प्राप्त निष्कर्षतः इन अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह तथा क्षमा, तप, सत्संग सेवा, दान, शौच आदि सामान्य आचारों के सन्दर्भ में पुराण तथा जैन धर्म में कितना साम्य है-यह पूर्वोक्त विवेचन से स्पष्ट होता है। इन सामान्य आचारों को पर्याप्त महत्व देते हुए प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में धारण करने योग्य बताया गया है। 000 सामान्य आचार / 162
SR No.004426
Book TitlePuranome Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharanprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2000
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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