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________________ द्रव्य से प्राप्त आहार की, अच्छे व्यवहार से आचरणों की, जलमृतिका आदि से शरीर की शुद्धि “बाह्य शौच” कही जाती है। राग-द्वेष, कपट आदि मनोविकारों के नष्ट होने पर अंत:करण के निर्मल हो जाने को “आभ्यन्तरिक शौच” कहा जाता है। इन दोनों में आत्म-कल्याण का हेतु अन्तरशौच ही पुराण तथा जैन धर्म में माना है। पुराणों में स्पष्ट कहा है “न वारिणा शुद्ध्यति चान्तरात्मा” अर्थात् अन्तरात्मा जल के द्वारा शुद्ध नहीं होती। इसकी पुष्टि हेतु कई उदाहरण भी पुराणों में प्रस्तुत हैं-रात-दिन जल में निमज्जन करने वाले कैवर्त जाति के लोग क्या पावन हो जाते हैं? अहर्निश भस्म से धूसर रहने वाले रासभ (गधा) क्या पवित्र कहे जाते हैं? प्रतिसमय जल में ही स्थित रहकर अवगाहन करने वाले शैवल, झषक (मछली), मत्स्य और मत्स्योपजीवी प्राणी क्या विशुद्ध हो जाते हैं ? मन का मैल हटाने पर ही वास्तविक निर्मलता प्रादुर्भूत होती है। शोक, क्रोध, लोभ, काम, मोह परात्मता, ईर्ष्या, अवमान, विचिकित्सा, कृपणता, असूया, जुगुप्सता ये द्वादश मानसमल हैं जो बुद्धि का नाश करते हैं। इन मलों का नाश करने वाला ही वास्तविक तीर्थ है। जिसने अपनी समस्त इन्द्रियों को पूर्णतया जीत लिया, अपने को काबू में किया वह जहाँ भी रहे, उसके लिए वही स्थल परम पवित्र कुरुक्षेत्र, नैमिषद् और पुष्कर है / 158 धर्म को धारण करने वाले संत महापुरुष ही वास्तविक तीर्थ और देवता हैं, क्योंकि इनके दर्शन मात्र से कल्याण हो जाता है। आभ्यन्तर तीर्थ भी निरूपित है-आत्मा ही एक नदी तुल्य है जो संयम स्वरूप पुण्य तीर्थों वाली है, सत्य इसमें उदक है, शील तथा क्षमादि से समन्वित इस नदी में स्नानकर्ता महान् पुण्य कर्मों वाला होता है। स्कन्द पुराण में लोपामुद्रा की जिज्ञासा का समाधान करते हुए अगस्त्य ने मानस तीर्थ वर्णित किये हैं, उनके अनुसार क्षमा, इन्द्रिय-निग्रह, दया, सरलता, दान, दम, संतोष, ब्रह्मचर्य, प्रियभाषण, ज्ञान, धैर्य, तपश्चर्या आदि सभी मानस तीर्थों में सर्व प्रमुख है-मन की शुद्धता। जिसका मन शुद्ध है, वही शुद्ध है / लिंग पुराण के अनुसार भावपूर्वक आत्मज्ञान रूपी जल में स्नान करके, सुन्दर वैराग्यरूपी मृतिका का लेपन करना चाहिए। ऐसे शुचि-सम्पन्न शुद्ध व्यक्ति को ही सिद्धियाँ मिलती हैं। भावदुष्ट प्रलय पर्यन्त भी सरित-सरोवर-तड़ागों में नहाता रहे तो भी शुद्ध नहीं होता। मनुष्य का चित्त जो कमल के समान है तथा तम से प्रसुप्त है, जब इसका विकास ज्ञानरूपी सूर्य की दीप्ति से हो जाता है, तभी वह शुचि प्राप्त कर लेता है / इसी प्रकार गरुड़ पुराण में भी ब्रह्म ध्यान, इन्द्रिय-नियंत्रण, भाव-शुद्धि को तीर्थ मानते हुए कहा गया है कि ज्ञानरूपी सरोवर में, ध्यानरूपी जल से जो राग-द्वेषरूपी मल का अपहरण करने वाला है, नित्य इस मानस तीर्थ में स्नान करने वाला वह मनुष्य परम गति को प्राप्त करता है / 159 पुराणों के उपर्युक्त मन्तव्य के समान ही जैन धर्म का भी आशय है कि जल से आत्म-विशुद्धि कभी नहीं होती / तीर्थ की परिभाषा इस प्रकार है- जो संसार-सागर 161 / पुराणों में जैन धर्म
SR No.004426
Book TitlePuranome Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharanprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2000
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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