________________ और गायों का दान देने वाले तो आसानी से मिल सकते हैं, लेकिन भयभीत प्राणियों की प्राणरक्षा करके उन्हें अभयदान देने वाले व्यक्ति विरले ही मिलते हैं।५४ अभयदान को जैन धर्म में भी बहुत ज्यादा महत्व मिला है। सूत्र कृतांगसूत्र में अभयदान को सर्वश्रेष्ठ दान कहा है। प्रश्नव्याकरण उत्तराध्ययन में भी इसका समर्थन किया गया है। सोने के सुमेरु पर्वत और सम्पूर्ण पृथ्वी का दान भी एक व्यक्ति को दिए गये जीवनदान की तुलना में नगण्य है। वस्तुतः अभयदान का क्षेत्र सभी दानों से विस्तृत है। दूसरे दानों से मनुष्य या प्राणी अस्थायी सन्तोष पाता है, किन्तु अभयदान तो जिन्दगी का दान है।५५ दान का महत्व सांसारिक पदार्थों की तीन ही गतियाँ हैं-दान, भोग या नाश; भोग से भी विनाश ही होता है। मात्र दान द्वारा वह कुछ सफल होता है, क्योंकि स्वयं उपभोग करने से दान सौ गुणा सुख देने वाला है। दान की विशेषता यह है कोई भी दानशील करोड़ों और सहस्रों पर्वत के बराबर सुवर्ण का दान करे और उसमें श्रद्धाभाव न हो तो वह व्यर्थ एवं फल-शून्य ही होता है; वस्तु का अल्पत्व या बहुत्व अविचारणीय है। दान से स्वर्गादि की प्राप्ति होती है। अपने हाथ से भूमि में प्रक्षिप्त धन की तरह वह दूसरे देह में प्राप्त होता है। पुष्ट देह प्राप्त करने का कोई लाभ नहीं, यदि दान के रूप में परोपकार नहीं किया या उपयुक्त पात्र को दान नहीं दिया। अतः धन और जीवन का सर्वश्रेष्ठ उपयोग यही है कि सत्पात्र को दान दिया जाए, दान से धन का कभी क्षय नहीं होता। धन का क्षय केवल अपने पूर्वजन्म के हीन कर्मों से होता है / 156 जैन धर्म में भी दान धर्मके चार पदों में प्रथम पद है। यदि दान में विधि. द्रव्य, दाता और पात्र की निर्मलता (शुद्धि) हो तो उसका अनुपम एवं अतुलनीय प्रभाव बताया है। उत्तम श्रद्धा, निर्मल हृदय, संयत आत्मा और विनम्र भावना आदि गुणों से युक्त सत्पात्र में स्वल्पदान भी इसी प्रकार फलीभूत होता है जैसे वटवृक्ष का अत्यन्त छोटा-सा बीज एक विशाल वट को जन्म देता है। ऐसे दान के द्वारा बुद्धिमान लोग संसार के दुःखरूपी समुद्र को ठीक वैसे ही पार कर जाते हैं जैसे सुनिर्मित जलयान द्वारा व्यापारी लोग सरलता से समुद्र पार कर जाते हैं। निष्काम तथा निस्वार्थ भाव से देने वाला और लेने वाला दोनों ही दुर्लभ हैं। ये दोनों ही सद्गति को प्राप्त करते हैं।१५७ शौच जीवन के परम लक्ष्य की ओर अग्रसर होने के लिए शौच अर्थात् पवित्रता आवश्यक है। शौच दो प्रकार का होता है बाह्य और आन्तरिक / सत्यता से अर्जित सामान्य आचार / 160