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________________ * कुछ न बोलते हैं, न देते हैं।१४८ दाता की विशेषता यही है कि दाता के दिल में देने वाले के प्रति श्रद्धा हो तथा वस्तु त्यागदेने के बाद उसके प्रति दाता के मन में किसी प्रकार असूयाभाव न जगे, कोई विषाद न हो, साथ ही दान करने के बाद दाता किसी फल की आकांक्षा न करे।४९ पात्र पात्र के सम्बन्ध में पुराणों में गुणवान् ब्राह्मण को पात्र कहा है। परम श्रेष्ठ विप्र यदि आचारहीन है तो वह भी पात्र नहीं है। भस्म में हवि के समान ही उसे दान देना उचित नहीं है। ऊसरभूमि में बोया बीज, टूटे हुए बर्तन में दोहन किया हुआ दूध, भस्म में हवन किया हुआ हव्य और मूर्ख विप्र को दिया हुआ दान अशाश्वत्, अस्थायी एवं निष्फल होता है। उससे हीन (कुपात्र में) तथा अपात्र में जो कोई प्रतिग्रह (दान) देता है, उसका वह दान ही नहीं बल्कि शेष पुण्य भी नष्ट हो जाता है। विद्वान पुरुष को प्रतिग्रह लेने में भय करना चाहिए। स्वल्प भी प्रतिग्रह से दलदल में फंसी हुई गो के समान उत्पीड़ित हो जाता है। विद्या, तपश्चर्या, सच्चरित्रता जिसमें विद्यमान हो, वही वस्तुतः पात्र कहा जाता है। इस प्रकार से सुपात्र में दिया गया दान दिनों-दिन बढ़ता है। इससे भी ज्यादा पात्र योगी को बताया है-श्राद्धभोगी एक सहस्र ब्राह्मणों के सम्मुख, एक भी योगी हो तो वह यजमान सहित सबका उद्धार कर देता है / 150 गुणों के आधार पर ही पात्रत्व का निर्धारण जैन धर्म में भी है। हरिभद्र सूरि के अनुसार व्रत पालक, साधुवेश में स्थित, संदा अपने सिद्धान्त के अविरुद्ध चलने वाले जन दान के पात्र हैं, उनमें भी विशेषतः वे जो अपने लिए भोजन नहीं पकाते / जो कार्य करने में अक्षम हैं, अन्धे हैं, दुःखी हैं, विशेषतः रोग पीड़ित हैं, निर्धन हैं, जिनके जीविका का कोई सहारा नहीं है, ऐसे लोग भी दान के अधिकारी हैं।९५१ दान के प्रकार इनके अतिरिक्त दान के प्रकारों पर भी विचार किया गया है। पुराणों में द्रव्य (देय वस्तु) की पवित्रता-अपवित्रता के आधार पर कनिष्ठ, मध्यम और ज्येष्ठ ये तीन प्रकार बताये हैं तथा भूदान, अन्नदान, जलदान आदि को भी महत्वपूर्ण बताया है / 152 अन्न, जल आदि दान से पुण्य प्राप्ति का उल्लेख जैनागमों में भी है / 153 सर्वश्रेष्ठ दान पुराण तथा जैन धर्म के अनुसार सर्वश्रेष्ठ दान अभयदान है। पुराणों में कहा गया है---एक ओर तो समय दक्षिणायुक्त दान है (अन्य सभी दान), और एक ओर भयभीत (डरा हुआ) प्राणी के प्राणों का संरक्षण है। दुनियाँ में जमीन, सोना, अन्न 159 / पुराणों में जैन धर्म
SR No.004426
Book TitlePuranome Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharanprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2000
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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