________________ है, वह गुरु है। इसके विपरीत सभी भोग्य वस्तुओं के अभिलाषी, परिग्रहधारी, अब्रह्मचारी और मिथ्या उपदेश देने वाले गुरु नहीं हो सकते / परिग्रहादि में मग्न गुरु दसरों को कैसे तार सकते हैं? जो स्वयं दरिद्र हैं, वही दूसरों को धनाढ्य बनाने में समर्थ कैसे हो सकते हैं?१३६ शिष्य-कर्तव्य जैन धर्म एवं पुराणों में शिष्य के लिए प्रमुख कर्तव्य गुरु-आज्ञा का पालन करना निर्धारित है। पुराणों में लिखा है कि गुरु की अवज्ञा करने पर सब कुछ नष्ट हो जाता है। गुरु की आज्ञा के बिना जो वस्तु ग्रहण की जाती है, वह चुराई हुई वस्तु के समान है। जो बिना गुरु का पूजन किये शास्र सुनते हैं या सुनना चाहते हैं और गुरु की सप्रेम भक्ति के साथ सेवा नहीं करते या उनको उत्तर देते हैं, गुरु को रोगी, असमर्थ या परदेश में स्थित या शत्रुओं द्वारा घिरे हुए अथवा तिरस्कृत मनुष्यों में छोड़ देते हैं इन सभी को शिव-निन्दा तुल्य ही महापाप होता है।९३७ जैनागमों के अनुसार भी जो गुरुजनों की आज्ञाओं का यथोचित पालन करता है, उनके निकट सम्पर्क में रहता है एवं उनके हर संकेत एवं चेष्टा के प्रति सजग रहता है, उसे विनीत कहा जाता है, अर्थात् 'गुरु की आज्ञा ही नहीं, संकेत द्वारा ही शिष्य को अभिप्राय समझ लेना चाहिए। जो इस प्रकार से गुरुजनों की भावनाओं का आदर करता है, वही शिष्य पूज्य होता है। गुरुजनों के अनुशासन से कुपित, क्षुब्ध नहीं होना चाहिए। प्रज्ञावान् शिष्य गुरुजनों की जिन शिक्षाओं को हितकर मानता है, दुर्बुद्धि दुष्ट शिष्य को वे ही शिक्षाएं बुरी लगती हैं। विनीत बुद्धिमान शिष्यों को शिक्षा देता हुआ ज्ञानी गुरु उसी प्रकार प्रसन्न होता है, जिस प्रकार भद्र अश्व (अच्छे घोड़े) पर सवारी करता हुआ घुड़सवार / 28 गुरुजनों की अवहेलना करने वाला कभी बंधनमुक्त नहीं हो सकता। गुरु के सम्मुख विनम्रतापूर्वक रहते हुए अविनय से सम्बन्धित चेष्टाएं, यथा गुरुजनों के सामने पैर पसारना, उच्चासन पर बैठना आदि दोनों (पुराण, जैन धर्म) में निषिद्ध हैं।९३९ गुरु-महिमा गुरु शब्द से ही स्पष्ट है जो अज्ञानरूपी अन्धकार को हरण करने वाला है। पुराणों के अनुसार शिव, गुरु, विद्या तीनों का महत्त्व समान है। गुरु सर्वदेवमय तथा सर्वमन्त्रमय होते हैं, अतः प्रयत्नपूर्वक उनकी आज्ञा शिरोधार्य करे, मन से भी न लांधे। जैसे पापी के संग से व्यक्ति पतित हो जाता है, वैसे ही गुरु के संग से सब पाप नष्ट होकर शुद्ध हो जाता है। सन्तुष्ट गुरु क्षणभर में कल्याण कर देते हैं। मन, वाणी, कर्म द्वारा गुरु को क्रोधित न करे। गुरु-ब्रह्मा, विष्णु, महेश, परब्रह्म तुल्य तथा सामान्य आचार / 156