________________ वायु, वरुण, चन्द्र, अनिल, रवि, माता-पिता तथा सुहृद् के रूप में निर्देशित है। उससे बढ़कर पूज्य और कोई नहीं है। अभीष्ट देव के रुष्ट हो जाने पर गुरु उसे बचाने में समर्थ है, किन्तु गुरु के रुष्ट होने पर समस्त देवता भी व्यक्ति की रक्षा नहीं कर सकते / 140 इसी प्रकार गुरु का महत्त्व सम्पादित करते हुए जैनागमों में भी गुरु को प्रसन्न करने तथा कुपित न करने की बात कही गई है। गुरु की आज्ञा पालन करना सब गुणों से बढ़कर है। अनाबाध् मुक्ति-सुखाभिलाषी शिष्य को गुरु की प्रसन्नता के लिए सदा प्रयत्न करना चाहिए, क्योंकि जैसे जहाज के बिना समुद्र को पार नहीं किया जा सकता, वैसे ही गुरु के मार्गदर्शन के बिना संसार-सागर पार कर पाना बहुत कठिन है / 141 इस प्रकार गुरु की आज्ञा पालन करने से, सेवा-सुश्रुषा से शिक्षाएं वैसे ही र ढ़ती हैं जैसे कि जल से सींचे जाने पर वृक्ष / परोपकार = प्राणी मात्र की सेवा . सज्जन लोग स्वभाव से ही परोपकारी होते हैं। परोपकार करते हुए व्यक्ति स्वोपकार भी कर लेता है। जैसा कि भक्तिपरिज्ञा नामक ग्रन्थ में कहा गया है कि किसी भी अन्य प्राणी की हत्या वस्तुतः अपनी हत्या है और अन्य जीव की दया अपनी ही दया है / 142 पुराणों का सार यही है कि परोपकार पुण्य तथा परपीड़ा पाप का हेतु है. अष्टादश पुराणेष, व्यासस्य वचनद्वयम्। ___ परोपकार पुण्याय पापाय परपीड़नम्॥ दुष्ट अपनी दुष्टता को छोड़ते नहीं, वे सज्जनों को कष्ट देते हैं। यदि ऐश्वर्य और अहंकार भी दुष्ट को प्राप्त हो जाये तो फिर उसकी दुष्टता की कोई हद नहीं होती, क्योंकि पृथ्वी का आहार सम्पूर्ण निधि होने से वह सदा जलती है, उसी निधि के उपभोक्ता मनुष्य भी जलने लगें तो आश्चर्य की बात नहीं है। ऐश्वर्य द्वारा दुष्ट व्यक्ति उन्मत्त हो जाता है, कनक (स्वर्ण), कनक (धतूरे) से भी ज्यादा मादक होता है। जैसे अग्नि का मित्र वायु आने पर वह अत्यन्त प्रचण्ड होकर सर्वनाश करता है, वैसे ही मदान्ध को भी सत्-असत्, हित-अहित का ज्ञान नहीं रहता। किन्तु सज्जनों की वृत्ति, गति एवं मति इससे विपरीत होती है, साधु पुरुष सर्वदा क्षमाभाव से संयुक्त होकर परोपकार निरत रहते हैं। जैसे चन्द्रमा देवताओं द्वारा स्वयं को खाये जाने पर भी उन्हें सन्तुष्ट ही करता है, वैसे ही सन्त पुरुष दुष्ट को भी सुख ही देते हैं। फाड़कर और चीरकर भी प्राप्त किया गया चन्दन सर्वत्र सुगन्ध ही प्रसारित करता है। जड़ वृक्षों का जीवन भी फल, फूल, पुष्प, पत्र, वलकल, दारा, काष्ठ द्वारा सदा परोपकार 157 / पुराणों में जैन धर्म