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________________ गुरु की सेवा-विनय गुरु का स्वरूप पूज्य स्थान पर प्रतिष्ठित गुरु की महिमा का गान पुराण तथा जैन धर्म में पर्याप्त है। गुरु का स्वरूप निर्धारण करते हुए लिंगपुराणकार ने आचार्य की परिभाषा बताई है जो स्वयं आचरण करता है तथा दूसरों को भी आचार में स्थापित करता है तथा शास्रों के अर्थों को सब ओर से चयन करता है, वह आचार्य होता है। आचार्य शरणागत को आनन्द तथा अभय प्रदान करने वाले होते हैं / 133 जैन धर्म में भी आचार्य की परिभाषा लगभग इसी प्रकार है-आचार्य को स्वयं आचरण करने वाला तथा दूसरों को आचार मार्ग बताने वाला, शास्रार्थ ज्ञाता कहा है। राग-द्वेष से मुक्त आचार्य को शिष्यों के लिए शीतगृह (सब ऋतुओं में सुखदायी) के समान कहा गया है।३४ / गुरु के लक्षणों (गुणों) का वर्णन पुराणों में इस प्रकार से है वह (गुरु) शास्रों का वेत्ता, प्राज्ञ, तपस्वी, शिष्यों पर वात्सल्य रखने वाला, लोकाचार-रति रखने वाला हो। जिसकी आत्मा में स्व-संवेद्य परतत्त्व (परमतत्त्व) का निश्चय नहीं, वह स्वअनुग्रह, स्वश्रेय सम्पादन में भी असमर्थ होता है तो फिर दूसरों (शिष्यों) का कैसे कर सकता है ? आत्मज्ञानरहित को पशु कहा जाता है, ऐसे गुरुओं से प्रेरणा लेने वाले भी पशु ही कहे जाते हैं, अतः तत्त्वज्ञान परमावश्यक है। तत्त्वज्ञाता को ही आनन्द का दर्शन होता है / संवित्ति (ज्ञान) रहित केवल नाम मात्र से आनन्ददाता नहीं होता, ऐसे पुरुष परस्पर उद्धार नहीं कर सकते हैं। क्या कोई शिला किसी शिला को तार सकती है ? श्वेत केशधारी अधिक आयु से युक्त व्यक्ति यदि ज्ञानहीन है तो वह गुरु का पद नहीं पा सकता। इसके विपरीत अल्पायु भी ज्ञान सम्पन्न होने से वयोवृद्धों का भी गुरु बनने की योग्यता रखता है। उम्र के लिहाज से गुरु न होकर, ज्ञान के द्वारा ही होता है। मूर्ख गुरु, शिष्य को कभी पार नहीं कर सकता। ज्ञानी तो स्वयं मुक्त है तथा अन्यों को भी मुक्त कर सकता है, किन्तु सर्वलक्षण युक्त, सर्वशास्र ज्ञाता भी यदि तत्त्वज्ञान (आत्मज्ञान) से रहित हो तो व्यर्थ है / 135 लगभग इसी प्रकार से गुरु की योग्यताओं का उल्लेख करते हुए जैन धर्म में भी महाव्रतधारी, धैर्यवान्, शुद्ध भिक्षा से जीने वाले, संयम में स्थिर रहने वाले एवं धर्म का उपदेश देने वाले महात्मा गुरु माने गये हैं। गुरु को ज्ञानवान् तथा ज्ञानदाता होना आवश्यक है। यदि शिष्यों को ज्ञान नहीं प्राप्त होता है तो वह आचार्य (गुरु) की ही जड़ता है, क्योंकि गायों को कुघाट में उतारने वाला वस्तुतः गोपाल ही है। इस प्रकार जो एकान्त हितबुद्धि से जीवों को सभी शास्रों का सच्चा अर्थ समझाता - 155 / पुराणों में जैन धर्म
SR No.004426
Book TitlePuranome Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharanprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2000
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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