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________________ जैन एवं पौराणिक भक्ति का अन्तर इतना ही है कि जैन भक्ति का लक्ष्य ईश्वर की प्राप्ति न होकर मोक्ष की प्राप्ति है-ईश्वरत्व की प्राप्ति है जबकि पौराणिक भक्ति का प्रयोजन साक्षात् ईश्वर को प्राप्त करना है एवं जैसे प्रकाशस्तम्भ की उपस्थिति में भी जहाज समुद्र में बिना गति के उस पार नहीं पहुँचता, वैसे ही केवल नाम-स्मरण या भक्ति साधक को निर्वाण-लाभ नहीं करा सकती, जब तक कि उसके लिए सत्प्रयत्न न हो। जैन परंपरा में भक्ति का लक्ष्य आत्मा के शुद्ध स्वरूप का बोध या साक्षात्कार है। अपने में निहित परमात्म शक्ति को अभिव्यक्त करना है।१२९ . वस्तुत: भक्ति मात्रगुणों का अनुराग ही नहीं, अपितु गुणों का साक्षात्कार करना है / 130 बड़ों का सत्कार-विनय पुराणों में उपाध्याय, आचार्य, पिता, माता आदि सभी को पूज्य बताते हुए उनके प्रति. कर्तव्य पालन के लिए प्रेरित किया गया है। माता-पिता का जीवन में कितना उच्च स्थान होता है, इसे बताते हुए कहा है कि जो अपने माता-पिता का अर्चन करके उनकी परिक्रमा कर लेता है, उसे भूमण्डल की परिक्रमा पूर्ण करने का फल सुनिश्चित प्राप्त होता है। पुत्र के लिए माता-पिता की सेवा ही सबसे बड़ा तीर्थ है जो घर में रहकर सम्पन्न होती है और तीर्थों के लिए तो दूर जाना पड़ता है। पुत्र की स्री के लिए भी घर में इसी को परम शोभनतीर्थ बताया है। स्कन्दपुराण में माता-पिता के निन्दक को भाग्यहीन कहा है। इतना ही नहीं, मत्स्यपुराण में कहा गया है कि आचार्य साक्षात् ब्रह्मा की, पिता प्रजापति की; माता पृथिवी की तथा भाई. अपनी आत्मा की ही मूर्ति होता है। जन्म देने वाले माता-पिता के द्वारा जन्म से ही क्लेश (कष्ट) सहे जाते हैं, जिनकी निष्कृति मनुष्य सौ वर्षों में भी नहीं कर सकता। अतः सर्व प्रकारेण-नित्य इनका पूजन करे, इन तीनों के तुष्ट हो जाने पर सभी तप हो जाते हैं। ये तीनों ही तीन लोक हैं, तीन आश्रम हैं, तीन वेद हैं, तथा तीन अग्नियाँ हैं, पिता गार्हपत्य, माता दक्षिण्यग्नि, गुरु आह्वनीयग्नि है। इनमें भी उपाध्याय से आचार्य 10 गुणा, आचार्य से पिता 100 गुणा, पिता से माता 1000 गुणा सम्मान तथा गौरव पात्र है। इस प्रकार शिक्षा देने वाले, पिता, माता तीनों को गुरु कहा गया जैन धर्म में भी गृहस्थ के प्रधान कर्तव्यों में गुरुजनों (बड़ों) का आदर करना स्वीकार किया गया है। कई आख्यानों में भी माता-पिता की आज्ञापालन, सेवादि करने का वर्णन स्पष्ट परिलक्षित होता है। योगशास्त्रकार ने श्रावक की 35 विशेषताओं में “मातापित्रोश्च पूजक” भी लिखा है / 132 सामान्य आचार / 154
SR No.004426
Book TitlePuranome Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharanprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2000
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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