________________ सम्पूर्ण रूप से अर्पित कर देना है। जैन स्तोत्र ही नहीं, जैन धर्म का मूल मंत्र नमस्कार-महामंत्र तो नमस्कार वंदन से ही ओत-प्रोत है / 122 7. दास्य-भगवान् को अपने कर्मों का अर्पण कर देना तथा उनकी अनन्य * सेवा में अपने को लगा देना दास्य भक्ति है। विष्णु पुराण के अनुसार देवगण निरन्तर फलाकांक्षा रहित भगवान् को अपने कर्म अर्पण करने वाले तथा अनन्त में लीन होने वाले पुरुष का गुणगान करते हैं।१२३ इसकी निष्कामता भागवतपुराण में व्यक्त है-भगवान् की सेवा जो मनुष्य स्वार्थ-बुद्धि से करते हैं, उनमें वह सच्चा दास्य-भाव नहीं है। वह वाणिज्य व्यापार के समान है / 124 इस प्रकार श्रद्धापूर्वक सेवा भाव के लिए उत्सुकता जैन स्तोत्रों में भी दृष्टिगत होती है। 8. सख्य भगवान् में अटल विश्वास और उनके साथ मित्रता सदृश व्यवहार सख्य भक्ति है। आत्मा में परमात्म-भाव मानते हुए साधक का समस्त प्राणी समुदाय के साथ जो विभिन्नता का भाव रहता है, वह मैत्री में परिणत हो जाता है।९२५ इस दृष्टि का समर्थन प्रकारान्तर से जैन धर्म भी करता है। वहाँ भी आत्मवत् सभी को मानकर मैत्री सम्बन्ध की प्राप्ति को प्राप्त करना व्यक्ति का कर्तव्य माना है।१२६ भगवान् के प्रति सख्य भक्ति का वर्णन जैन परंपरा में अल्पमात्रा में मिलता है। 9. आत्मनिवेदन-अहंकार विहीन होकर स्वयं को सर्वात्मना श्रद्धापूर्वक भगवान के लिए समर्पित कर देना “आत्मनिवेदन” भक्ति है। इसका तात्पर्य है सर्वथा शरणापन्न हो जाना। विष्णु पुराण में यम अपने अनुचर को भगवान् के शरणभूत व्यक्तियों को छोड़ देने के लिए कहते हैं। यह अवस्था अवर्णनीय है, क्योंकि रूपक भौतिक पदार्थ ही प्रदर्शित करने की क्षमता रखते हैं; किन्तु आत्मा का आत्मा से मिलन-जिसमें जीवात्मा प्राण का अस्तित्व सम्पूर्ण रूपेण खो देता है और तब इसकी स्वरूपता का बोध प्रथमबार किन्तु सदा के लिए होता है / 120 इसी को जैनागमों में सिद्ध संज्ञा दी है अर्थात् आत्मा का अनन्त में ज्योति में ज्योतिवत् विलीन हो जाना। यह वर्णन बड़ा ही तात्विक एवं गहन है। स्थूलदृष्ट्या आत्मनिवेदन भगवान् की महत्ता और अपनी लघुता दिखाता है—आत्मालोचन करता है, जिसका जैन स्तोत्रों में भी दर्शन होता है / 128 - जैन हिन्दी साहित्यकारों ने (द्यानतराय, दौलतराय, आनन्दघन, भागचन्द्र भूधरदासादि) भी अपने साहित्य में नवधा भक्ति का प्रतिपादन किया है। यह नवधा भक्ति ऐसी पद्धति है जो साधक को शनैः शनैः स्वाभाविक रूप से सिद्धि के उस वर्धमान मार्ग के द्वारा उस लक्ष्य पर पहुँचा देती है जहाँ परमतत्त्व की अनुभूति होती - है और फिर अविद्या की ओर लौटना नहीं होता। . 153 / पुराणों में जैन धर्म . .