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________________ 4. पादसेवन इस भक्ति के सन्दर्भ में कहा गया है कि स्थूल चक्षुओं से उसका (भगवान् का) रूप देखा नहीं जा सकता। आकार दृष्टिगोचर न होने से हम उसके चरणों की सेवा कैसे कर सकते हैं? अत:-पादोस्य विश्वभूतानि-इस क्रम में अभ्यास द्वारा अशेष प्राणियों के भीतर नित्यसत्ता के अस्तित्व को समझ लेने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि आगे का क्रम सम्पूर्ण प्राणियों में उसकी सेवा करना और इसी को पादसेवन भक्ति कहा जाना विधेय है। 15 यद्यपि इस कारण से तो नहीं, फिर भी जैन धर्म में सभी में समान चैतन्य (आत्मतत्त्व) सत्ता होने से किसी भी प्रकार से पीड़ित करने का निषेध है। इसके अतिरिक्त भगवच्चरणों की मानसिक कल्पना (भावरूप) भी जैन स्तोत्रों में उपलब्ध होती है।११६ 5. अर्चन-स्थूलरूपेण बाह्य सामग्रियों से या मन के द्वारा श्रद्धापूर्वक भगवान् का पूजन करना अर्चन भक्ति है। प्रभु के योगिगम्य रूप की अर्चना के संदर्भ में विष्णुपुराणकार का कथन है कि योगीगण अपनी इन्द्रियों को अपने विषयों से खींचकर ध्यान द्वारा जिनका अर्चन करते हैं, चित में प्रभु स्वरूप की भावना कर भावमय पुष्पादि ध्यान द्वारा उपस्थित करते हैं।११७ इस संदर्भ में शिव पुराण का यह कथन भी उल्लेखनीय है-“बाह्य पूजन से आभ्यन्तर पूजन सौ गुना अधिक श्रेष्ठ है क्योंकि उसमें दोषों का मिश्रण नहीं होता तथा प्रत्यक्ष दीखने वाले दोषों की भी वहाँ सम्भावना नहीं रहती है। भीतर की शुद्धि को ही शुद्धि समझनी चाहिए, बाहरी शुद्धि को शुद्धि नहीं कहते हैं; जो आन्तरिक शुद्धि से रहित है, वह बाहर से शुद्ध होने पर भी अशुद्ध ही है। भाव रहित भजन एकमात्र विप्रलम्भ (छलना) का ही कारण होता है। मैं तो सदा ही कृतकृत्य एवं पवित्र हूँ, मनुष्य मेरा क्या करेंगे?"११८ ___ अर्चन का यह रूप जैन धर्म में भी स्वीकृत है। पूजा दो प्रकार की है-द्रव्यपूजा तथा भावपूजा। वचन और शरीर का संकोच करना द्रव्य पूजा है एवं मन का संकोच करना भाव पूजा है। भाव पुष्पों का उल्लेख हरिभद्रसूरि ने भी किया है। उनके अनुसार अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, निःसंगता, गुरु भक्ति, तप और ज्ञान ये पूजा के आठ फूल कहलाते हैं।१९ जैन धर्म में परमात्मा की अर्चना साधन रूप में प्रयुक्त है, न कि साध्य रूप में। परमात्म के गुणों की प्राप्ति के साधन रूप में ही इसका महत्व है / 220 6. वन्दन-शास्रानुसार वन्दन शब्द का अर्थ होता है-प्रणाम, अभिवादन और नमस्कार आदि / विष्णु पुराण में यमराज अपने दूत से भगवद्वन्दन की महिमा कहता है कि जो भगवान् के सुख-वन्दित चरण-कमलों में परमार्थ बुद्धि से वन्दन करता है, समस्त पाप बंधन से मुक्त उस पुरुष को तुम दूर से ही छोड़कर निकल जाना।२१ वंदन का अर्थ साष्टांग अथवा पंचाग प्रणाम मात्र नहीं है, बल्कि अपने को कुछ विशेष महत्त्व न देकर प्रभु के चरणों पर धूल के समान अपने आपको सामान्य आचार / 152
SR No.004426
Book TitlePuranome Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharanprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2000
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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