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________________ (शासक) तीर्थंकर होते हैं। ऐसी सर्वोच्च शक्ति की प्राप्ति (तीर्थंकर नामकर्म बंध की प्राप्ति) भी अरिहंत, सिद्ध, प्रवचन, गुरु, स्थविर, बहुश्रुती, तपस्वी इन सातों के भावपूर्वक गुणानुवाद करने से तथा ज्ञानोपयोग, निर्मल सम्यक्त्व, गुरु आदि पूज्यजनों का विनय इत्यादि 20 प्रकार की आराधना द्वारा होती है / 05 यह भक्ति का ही विशिष्ट रूप है। ___पुराणों में वर्णित नवधा भक्ति के ये नाम हैं-श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पादसेवन, अर्चन, वन्दन, दास्य, सख्य और आत्म निवेदन / 06 जैन स्तोत्रों में अनेक स्थलों पर इनका संकेत मिलता है। नवधा भक्ति को तीन भागों में विभक्त किया है। प्रथम तीन श्रवण, कीर्तन, स्मरण भक्ति तो परोक्ष में (उपास्य देव की अनुपस्थिति में) की जाती है। दूसरी तीन भक्ति पूर्णतया तो भगवान् के साक्षात् मिलने पर ही होती हैं किन्तु अनुपस्थिति. में मन के भाव द्वारा प्रत्यक्ष मानकर भी इनका अनुष्ठान किया जाता है ये छ: भक्तियाँ क्रियारूप हैं। शेष तीन भावरूप हैं। अनेक विद्वानों ने श्रवण को सत्संग, कीर्तन को भजन, स्मरण को ध्यानरूप, पादसेवन-अर्चन-वंदन को भगवच्चरणों से सम्बन्धित बताया है / 07 1. श्रवण भक्ति-भगवान् के नाम, चरित्र एवं गुणादि के श्रवण को श्रवण भक्ति कहा गया है। आचार्य सिद्धसेन ने कल्याण मंदिर स्तोत्र में भगवान् के नाम श्रवण द्वारा दुःख का नाश बताया है / 108 जैन आगम साहित्य में श्रवण का महत्त्व जिनवाणी श्रवण के रूप में है, जिसके द्वारा व्यक्ति अपने श्रेय मार्ग को चुन सकता . 2. कीर्तन-भगवान् के नाम, गुणादि का श्रद्धापूर्वक कीर्तन करना कीर्तन भक्ति है। यह गुण कीर्तन स्थूलमुख से नहीं, अन्तकरण की तन्त्री से भगवान् का यशोगान करना कीर्तन भक्ति है / 11deg लगभग सभी जैन स्तोत्रों में भगवान् का गुण कीर्तन है। यही नहीं, आगम साहित्य के अन्तर्गत भी यह दृष्टिगोचर होता है-अरिहंते कित्तइस्सं, चउवीसं पिकेवली / 11 3. स्मरण-जिस किसी प्रकार से मन के साथ भगवान् का सम्बन्ध हो जाता है, वह स्मरण भक्ति है / 12 अर्थात् भगवान् के परम प्रभावशाली मंगलमय नाम, रूपं, गुण का ध्यान करना ही स्मरण भक्ति है। विष्णु पुराण में पाप के अनन्तर पश्चात्ताप होने पर भगवत्स्मरण ही एक मात्र प्रायश्चित्त है। भगवत्स्मरण से पापक्षय ही नहीं, मोक्षपद की प्राप्ति होती है, स्वर्ग लाभ तो उसके लिए विघ्नरूप है / 13 जैन स्तोत्रों का भी यही आशय है कि सूर्य की बात तो क्या, उसकी प्रभा ही कमलों को विकसित कर देती है। उसी प्रकार स्तुति तो दूर, आपका स्मरण (नाम कथा) ही पाप दूर कर देता है / 14 यदि भगवत्स्मरण या आत्मस्मरण भी बना रहे तो व्यक्ति पापकर्म से बचा रहता है। 151 / पुराणों में जैन धर्म
SR No.004426
Book TitlePuranome Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharanprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2000
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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