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________________ जैसे कि मूल्यवान माला मुर्दे पर डाल देने से निकम्मी हो जाती है। अतः आलसी, वैर-विरोध रखने वाले और स्वेच्छाचारी का साथ छोड़ देना चाहिए। कुसंगति के हट जाने पर भी सत्संगति की आवश्यकता क्यों होती है, इसका समाधान किया है कि एकाकी रहने वाले साधक के मन में प्रतिक्षण नाना प्रकार के विकल्प उत्पन्न एवं विलीन होते रहते हैं, अतः सज्जनों की संगति में रहना ही श्रेष्ठ है। सत्संग से धर्म श्रवण, धर्म श्रवण से तत्त्व ज्ञान, तत्त्व ज्ञान से विज्ञान (विशिष्ट तत्त्व ज्ञान), विज्ञान से प्रत्याख्यान (सांसारिक पदार्थों से विरक्ति), प्रत्याख्यान से संयम, संयम से अनास्रव (नवीन कर्म का अभाव), अनास्रव से तप, तप से पूर्वबद्ध कर्मों का नाश, पूर्वबद्ध कर्मनाश से निष्कर्मता (सर्वथा कर्म रहित स्थिति) और निष्कर्मता से सिद्धि अर्थात् मुक्ति प्राप्त होती है।१०२ सारांशतः साधु पुरुषों का समागम मन के संताप को दूर करता है, आनन्द की अभिवृद्धि करता है और चित्तवृत्ति को संतोष देता है। अतः हमेशा साधुजनों के साथ सम्पर्क रखना चाहिए। जंगमतीर्थ के रूप में संत समागम तुरन्त ही फलप्रद होता है / 103 सेवा सेवा के अनेक रूप व्यक्ति-भेद से हो सकते हैं। यथा भगवद् सेवा (सेवन ध्यानादि के रूप में) भक्ति कहलाती है, बड़ों की सेवा को विनय की संज्ञा दी जाती है, छोटों की सेवा अथवा अन्य किसी की हित-साधन रूप सेवा को परोपकार से अभिहित किया जाता है। इस प्रकार भक्ति, विनय, सहायता, परोपकार आदि सभी सेवा के ही विभिन्न रूप हैं। भगवद् सेवा अर्थात् भक्ति ___ भगवान् की भक्ति रखना, आस्था रखना एवं उनके द्वारा निर्दिष्ट मार्ग पर चलते हुए स्वलक्ष्य को पाने की चेष्टा करना ही भगवद् सेवा है, भक्त उनकी अन्य क्या सेवा कर सकता है ? भक्ति के मूल में श्रद्धा का पुट आवश्यक है। अतः जैन धर्म में भगवद् भक्ति का तात्पर्य इनके उपदेशों का श्रद्धाभाव से अंगीकरण है। भक्ति का महत्त्व ___ पुराणों में भक्ति का विवेचन करते हुए नवधा भक्ति का निरूपण है। भक्ति की महत्ता बताते हुए विष्णु पुराण का कथन है-निश्चल भक्ति के द्वारा मुक्ति भी मुट्ठी में रहती है। फिर धर्म, अर्थ और काम से तो उसका प्रयोजन ही क्या रहता भक्ति का महत्त्व जैन धर्म में भी है। जैनागमानुसार जिस प्रकार लौकिक क्षेत्र में सर्वोच्च शक्ति चक्रवर्ती की है; उसी प्रकार धार्मिक क्षेत्र के अधिपति सामान्य आचार / 150
SR No.004426
Book TitlePuranome Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharanprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2000
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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