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________________ है। साधु पुरुषों का समागम होना मनुष्यत्व प्राप्त करने से भी दुर्लभ है। मनुष्य जन्म प्राप्त करने के बाद और मनुष्यत्व प्राप्त करने के बाद भी जरूरी नहीं कि हमें सन्मार्ग बताने वाली सत्संगति मिल जाये। 01 संग परिणाम व्यक्ति ही नहीं, दुनियां की प्रत्येक वस्तु संग पाकर परिवर्तित हो जाती है। जैसा भी संग मिले, वैसा परिणमन हो जाता है। फिर भी दो जनों पर किसी भी संग का प्रभाव नहीं पड़ता। एक तो पूर्णतया निर्लिप्त समभावी दृढ़संकल्पी आत्ममग्न व्यक्ति किसी भी प्रकार से कुसंग से प्रभावित नहीं होता तथा दूसरा वह व्यक्ति जो ढीठ प्रकृति का हो, प्रगाढ आसक्ति वाला तथा मोहान्ध हो, ऐसे व्यक्ति पर भी चाहे जितना महान संग हो, प्रभाव नहीं डाल पाता। तथापि आम व्यक्ति जो प्रसंग पाने पर ढलता है. उसके लिए संग बहुत महत्त्व रखता है, क्योंकि उसका हृदय उर्वर काली मिट्टी जैसा होता है। यदि सत्संग रूपी बीज वहाँ नहीं डाला जाये तो अनावश्यक . तथा खराब, काँटेदार झाड़-झंखाड़ खड़े हो जाते हैं, अतः सत्संग रूपी बीज डालना वहाँ आवश्यक है। बीज डालने से पूर्व जिस प्रकार क्षेत्र की सफाई आवश्यक है, वैसे ही हृदय की शुद्धि (परिष्करण) भी आवश्यक है, जिससे वहाँ अच्छे संग का प्रभाव पड़ सके। कुसंग से बचने की प्रेरणा जैन तथा पुराण साहित्य में दी गई है। - पुराणों का इस सन्दर्भ में स्पष्ट कथन है कि दुर्जन पुरुष के संग से सज्जन पुरुष भी विनष्ट हो जाया करते हैं; जिस तरह स्वच्छ जल को भी कीचड़ द्वारा मैला कर दिया जाता है। निरन्तर सत्पुरुषों की संगति करे और सत्पुरुषों के साथ अपनी उठक-बैठक रखे। सत्पुरुष के साथ ही विवाद और मैत्री भी करनी चाहिए, पण्डित वृन्द, विनीतजन, धर्म के ज्ञाता और सत्यवादी पुरुषों के साथ बंधन में स्थित होकर भी रहे और खलों के साथ राज्य में कभी भी नहीं रहे, क्योंकि खल संग का परिणाम सर्वदा बुरा ही होता है / इसके विपरीत सत्संग दुष्कृतों (पापों) का संचय रण करने वाला होता है। सत्पुरुषों का समागम कर्मों के पाश में अर्दित पुरुषों के हृदय के बंधन का हरण कर देता है और अत्यन्त अल्पजल्पी (अल्पभाषी) मनुष्यों व उच्च पद वितरण करने वाला, संसार में बारम्बार जन्म-ग्रहण और मृत्यु प्राप्त करने के कर्म में परम श्रान्त लोगों को विश्रान्ति प्रदान करने का हेतु होता है। सूर्यदेव तो अपनी किरणों के प्रकाश के द्वारा दिन के समय में केवल बाहरी अन्धकार का ही विनाश किया करते हैं, किन्तु सन्त पुरुष तो अपने सद्वचनों के द्वारा हृदय के अन्धकार को दूर कर दिया करते हैं। सन्तों के वचन रूपी किरणों से हृदय में व्याप्त अन्धकार पूर्ण रूप से नष्ट होता है।०९ जैन धर्म में भी कुसंगति का दुष्परिणाम बताते हुए कुसंगति का निषेध दृष्टिगोचर होता है क्योंकि दुर्जन की संगति से सज्जन का भी महत्व गिर जाता है; . 149 / पुराणों में जैन धर्म
SR No.004426
Book TitlePuranome Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharanprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2000
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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