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________________ उद्धार करने की क्षमता रखते हैं। विषम अग्नि, सर्प और शस्त्र से उतना भय नहीं होता, जितना अकारण ही जगत् के बैरी खलों से भय होता है। सन्त पुरुष * तो अपने प्राणों का भी परित्याग दूसरों के अर्थ, हित लाभ के लिए किया करते हैं, वैसे ही असन्त पुरुष भी प्राणों तक का परित्याग कर दूसरों को पीड़ा देने में परायण रहा करते हैं। सज्जनों एवं दुर्जनों का स्वभाव बताते हुए नारद पुराण का कथन है जो सज्जन होते हैं, वे सम्पत्ति हो या विपत्ति हो, स्वप्न में भी कभी दूसरों को पीड़ा नहीं दिया करते हैं। विषय रूपी शत्रुओं से पीड़ित होता हुआ बुद्धिमान पुरुष अपनी रक्षा न कर दूसरों को कष्ट कैसे दे सकता है? आध्यात्मिक, आधिदैविक तथा आधि-भौतिक इन तीन प्रकार के तापों से स्वयं पीड़ा को प्राप्त करने वाला सज्जन मनुष्य क्या दूसरों को पीड़ा पहुँचाकर खिलवाड़ कर सकेगा? तथा जो मन, वाणी और कर्म के द्वारा सदा दूसरों को पीड़ित किया करता है और सर्वदा कामादि में फँसा रहता है, वह मूढबुद्धि वाला कहलाता है। इस प्रकार हित करने वाला सज्जन असूया, मत्सरता से रहित होता है, लोक में और परलोक में निःशंक होता है। सज्जन तो चन्दन के वृक्ष के समान होता है, जो स्वयं का छेदन करने वाली कुल्हाड़ी को भी सुरभित कर देता है। चन्द्रमा, सूर्य जिस प्रकार बिना किसी भेदभाव के गरीब-अमीर सभी को चांदनी तथा रोशनी प्रदान करते हैं, उसी प्रकार सज्जन भी स्व-पर, मित्र-शत्रु आदि भेद किये बिना ही सबका हित करते हैं। सज्जन जगत् में अत्यल्प हैं। साधु पुरुषों का समागम अत्यन्त दुर्लभ है। जिस व्यक्ति के पूर्वजन्म के पाप नष्ट हो जाते हैं, उसी को सत्संगति प्राप्त होती है। इसे पाना पूर्व जन्म के पुण्यों का ही फल समझना चाहिए, अन्यथा साधु पुरुषों की संगति कभी भी प्राप्त नहीं हुआ करती पुराणों के समान ही जैन धर्म में भी सत्पुरुष एवं दुर्जन का स्वभाव बताते हुए कहा है कि सज्जन दूसरे के दोष देखकर स्वयं में लज्जा का अनुभव करता है। (वह कभी उसे अपने मुँह से नहीं कह पाता)। श्रेष्ठ पुरुष अपने गुणों को वाणी से नहीं, किन्तु सच्चरित्र से ही प्रकट करते हैं। सब जगह प्रिय वचन बोलना, दुर्वचन बोलने पर भी उसे क्षमा करना तथा सबके गुण ग्रहण करते रहना, यह मंदकषायी (शांत स्वभावी) आत्मा के लक्षण हैं। जो वाणी से सदा सुन्दर बोलता है और कर्म से सदा सदाचरण करता है, वह व्यक्ति समय पर बरसने वाले मेघ की तरह सदा प्रशंसनीय जनप्रिय होता है। दुर्जन व्यक्ति का स्वभाव ठीक इससे विपरीत होता है। वह दूसरों की निन्दा करके अपने को गुणवान् प्रस्थापित करना चाहता है। उसका यह प्रयास ठीक वैसा ही है, जैसे कोई दूसरों को कड़वी दवा पिलाकर स्वयं रोग रहित होने की इच्छा करता है। दुर्जन व्यक्ति के संग से व्यक्ति प्रभावित होता सामान्य आचार/ 148
SR No.004426
Book TitlePuranome Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharanprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2000
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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