________________ में जनमेजय के कथनानुसार संसार में ऐसा कोई भी कार्य नहीं, जिसकी तपस्या से सिद्धि प्राप्त न हो। शिव पुराण में तप के लिए कहा गया है कि जो सबसे कठिन, दुराराध्य और दुर्धर तथा अत्यन्त कठिनाई से अतिक्रमण करने योग्य होता है, वह सब तपस्या से साध्य हो जाता है, किन्तु यह तप ही एक परम दुस्साध्य वस्तु है। तप द्वारा स्वर्ग, यश, कामना, लाभ आदि जो-जो इच्छा हो, वही प्राप्त हो जाता है। मदिरापान करने वाला, पराई स्री के साथ रमण करने वाला, ब्रह्म-हत्यारा और गुरु-पली के साथ गमन करने वाला महापापी भी तप से तर जाया करता है। तपमय मनोवृत्ति को दैवी कहते हुए कहा है कि जहाँ धर्म, तप एवं सत्य होते हैं, उसी पक्ष को युद्ध में विजय प्राप्त होती है।९६ ___ जैनागम भी तप के अनुपम फल को बताते हैं। वहाँ लौकिक पदार्थों को शुद्ध तप का फल नहीं बताया गया है वरन् तप में किसी न किसी प्रकार की कमी रहने पर लौकिक पदार्थ मात्र की उपलब्धि होती है। तप का मुख्य फल मुण्डकोपनिषद् की भांति आत्मदर्शन एवं आत्मस्वरूप की ही प्राप्ति है। तप के द्वारा आत्मा की पवित्रता एवं कर्मों को व्यवदान (आत्मा से दूर हटना) ही तप का प्रमुख फल है भवकोडियसंचियं कम्मं तवसा निज्जरिज्जड़ अर्थात् करोड़ों जन्मों के संचित कर्म तप से नष्ट हो जाते हैं। इनके साथ ग्रामं गच्छन्तृणंस्पर्शवत् अन्य लौकिक वैभव स्वर्ग आदि उपलब्धियाँ हैं। आटे के साथ भूसे के समान ही यहाँ उनके लिए अभिलाषा करना अनुचित बताया है। अन्ततः तप की महिमा वर्णन करते हुए जिस प्रकार जैनागमों में तपों में सर्व श्रेष्ठ ब्रह्मचर्य को कहा है, उसी प्रकार पुराणों का भी यही अभिमत है कि इन्द्रियों के समूह को तथा शब्दादि सूक्ष्मभूत रूप अनेक विषयसमूह को वश में करके ब्रह्मचर्य का पालन सबसे बड़ा तप है।८. सत्संग सत्संग का बहुत से विचारकों ने महत्त्व स्वीकृत किया है। कबीर, तुलसीदास, भर्तृहरि, माघ जैसे चिन्तकों ने सत्संगति को काया पलट करने में समर्थ माना है। सत्संगति का मूल्यांकन पुराण तथा जैन धर्म में किया गया है। सज्जनों की संगति सत्संगति कहलाती है। संगति करने से पूर्व यह जानना-परखना आवश्यक है कि वह सत्संग है या कुसंग। सज्जन एवं दुर्जन का परिचय मत्स्यपुराण में इस प्रकार से दिया गया है-सत्पुरुषों का समागम होने पर दुःख या क्लेश कहाँ? अर्थात् सज्जनों का समागम होने पर बिल्कुल भी ग्लानि नहीं होती। साधुपुरुष हो या असाधुजन, सबके उद्धारकर्ता सन्त ही होते हैं। जो असन्त हैं, वे न तो सत्पुरुषों का, न असत्पुरुषों का तथा न ही अपना . 147 / पुराणों में जैन धर्म