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________________ में ब्रह्मचर्य से बढ़कर कोई दूसरा तप नहीं है। अतः इन्द्रियों के समूह को तथा शब्द आदि सूक्ष्मभूतरूप उसके विषय-समूह को वश में करके ब्रह्मचर्य का पालन करें।" जैन धर्म में भी ब्रह्मचर्य माहात्म्य अनेकप्रकारेण वर्णित है। ब्रह्मचर्य को तपों में सर्वोत्तम माना है। एक ब्रह्मचर्य के नष्ट हो जाने पर सहसा अन्य सभी गुण नष्ट हो जाते हैं। एक ब्रह्मचर्य की आराधना कर लेने पर अन्य सब शील, तप, विनय आदि आराधित हो जाते हैं। देवता, दानव, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, किन्नर-सभी ब्रह्मचर्य के साधक को नमस्कार करते हैं, क्योंकि वह एक बहुत दुष्कर कार्य करता है। आज्ञा (आदेश) प्रवर्तक (अधिपत्यता), ऋद्धि, राज्य,कामभोग,कीर्ति,बल,स्वर्ग और आसन्नसिद्धि ये सभी लाभ ब्रह्मचर्य पालन से प्राप्त होते हैं। लोगों को लड़ाकर, क्लेश उत्पन्न करने वाला. मरवाने वाला, और सावध योग में तत्पर ऐसे नारद की भी मुक्ति होती है। यह निश्चय ही विशुद्ध शील का ही माहात्म्य है।६५ इस सन्दर्भ में पतिव्रत-माहात्म्य उल्लिखित करना भी प्रासंगिक होगा। शिव पुराण में इसका विवेचन करते हुए बताया है कि पतिव्रत धर्म का अनिर्वचनीय महत्त्व है। पतिव्रता नारी के चरण पृथ्वी पर जहाँ पड़ते हैं, वहीं वह पापों का हरण कर पवित्र करती है। सर्वत्र व्यापक सूर्य, चन्द्र, और पवन देव भी अपने आपको पवित्र बनाने के लिए पतिव्रता स्त्री के शरीर का स्पर्श करने के इच्छुक होते हैं। सबकी शुद्धि करने वाला जल भी सर्वदा पतिव्रता का स्पर्श करना चाहता है, जिससे वह अपनी जड़ता का नाश करे। सही अर्थ में उसी व्यक्ति को गृहस्थाश्रमी मानना चाहिए जिसके घर में पतिव्रता पत्नी है; वैसे तो स्रियाँ सबके ही होती हैं जो अहर्निश जरा राक्षसी के तुल्य ग्रास करती हैं। ब्रह्मवैवर्तपुराण के अनुसार समस्त देवताओं एवं मुनियों का तेज सती स्रियों में विद्यमान रहता है। वराह पुराण में यमराज का कथन है कि पतिव्रता स्री देवताओं के लिए भी पूजनीय है।६६ संक्षिप्ततः जैनशास्रों एवं पुराणों में ब्रह्मचर्य की महिमा-गान करते हुए अब्रह्मचर्य की निन्दा इसीलिए की गई है कि यह संसार वृद्धि के मूल कारण आसक्ति को बढ़ाता है। जैन दर्शन में इसका एक अन्य भी हेतु है अहिंसा पालन का। बिना हिंसा के अब्रह्म (मैथुन) होता ही नहीं है। उसमें कई प्रकार से हिंसा घटित होती है। अतएव उससे बचने के लिए भी ब्रह्मचर्य का पालन विहित है। अपरिग्रह “परि समन्तात् मोहबुद्धया गृह्यते यः स परिग्रहः” अर्थात् मोह (ममत्व) बुद्धि के द्वारा जो (पदार्थादि) चारों ओर से ग्रहण किया जाये, वह परिग्रह है। भगवान् महावीर द्वारा महाव्रत एवं अणुव्रत के रूप में प्रतिपादित अपरिग्रह का सिद्धान्त एक सर्वव्यापक, सार्वकालिक एवं सार्वदेशिक सत्य है।६८ इसको पुराणों में भी अन्तिम सामान्य आचार / 138
SR No.004426
Book TitlePuranome Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharanprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2000
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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