SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 159
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ यम के रूप में महत्त्वपूर्ण स्थान मिला है। परिग्रह का मूल कारण ममत्व आसक्ति. या तृष्णा है। यह उक्ति प्रसिद्ध है “न तृष्णायाः परो व्याधि न संतोषात्परं सुखम्” अर्थात् तृष्णा से बड़ी कोई व्याधि नहीं एवं संतोष से बड़ा कोई सुख नहीं। तृष्णा द्रौपदी के चीर के समान है, जो छोड़ने के बाद ही समाप्त होती है। यह बिना पाल के तालाब जैसी है जिसमें कितना भी पानी आ जाये, वो भरता नहीं है। परिग्रह के इस मूल कारण को समाप्त करने का निर्देश पुराण तथा जैन धर्म में दिया गया है। अपरिग्रह का स्वरूप आदि का विवेचन किया जा रहा है। अपरिग्रह स्वरूप हरिवंश पुराण में 7 चक्रवाक पक्षियों के नाम निर्दिष्ट किये हैं, जिनके मनन करने पर ब्रह्मचारी के सात गुणों का बोध होता है। उनमें से पंचम है “निष्परिग्रह। यहाँ गीता के “त्यक्त सर्वपरिग्रह” को चरितार्थता दृष्टिगोचर होती है। जिसने समस्त भौतिक संग्रहों (संचयों) का त्याग कर दिया हो, वह निष्परिग्रही या अपरिग्रही कहा जाता है। ब्रह्मचारी को सांसारिक वस्तुओं जैसे धन, वस्र आदि का संग्रह अभीष्ट नहीं होता। अतः इस तथ्य को स्पष्ट करने हेतु पक्षी (ब्रह्मचारी) का नाम “निष्परिग्रह' रखा गया है। ___ इसी प्रकार जैनसूत्र प्रश्नव्याकरण में भी अपरिग्रह की भावना से संवृत होकर रहने का निर्देश है। जैनागमों में सन्त को निष्परिग्रह होने से “भारण्ड' पक्षी की उपमा देते हुए अप्रमत्त विचरणशील कहा हैं___तात्विक रूप से परिग्रह और अपरिग्रह क्या है, यह स्पष्ट किया गया है-“मुच्छा परिग्गहो वुत्तो' अर्थात् आसक्ति (मूर्छा-गृद्धता) को ही वस्तुतः परिग्रह कहा है। इसी का समर्थन तत्त्वार्थसूत्र, प्रशमरति प्रकरण, त्रिषष्ठिशलाका पुरुषचरित, समयसार, विशेषावश्यक भाष्य इत्यादि अनेक ग्रन्थों में किया गया है। इसका यही तात्पर्य है कि निश्चय दृष्टि से विश्व की प्रत्येक वस्तु परिग्रह भी है और अपरिग्रह भी। यदि मूर्छा भाव है तो परिग्रह है, मूर्छा भाव नहीं है तो परिग्रह नहीं है। इस प्रकार-ममत्व भाव (आसक्ति) को पदार्थ पर से हटा लेना अपरिग्रह व्रत है। अपरिग्रही के लिए कहा गया है जिसको मोह नहीं होता, उसका दुःख नष्ट हो जाता है, जिसको तृष्णा नहीं होती, उसका मोह नष्ट हो जाता है। जिसको लोभ नहीं होता, उसकी तृष्णा नष्ट हो जाती है और जो अकिंचन (अपरिग्रही) है, उसका लोभ नष्ट हो जाता है। परिग्रह का मूल मोह है, आसक्ति ही है। बाह्य परिग्रह कभी भी बाधक नहीं होते। यदि मोह क्षीण हो जाता है तो व्यक्ति के लिए परिग्रह कोई महत्व नहीं रखता। इसी मूल पर ध्यान देने हेतु प्रेरित किया है जिस वृक्ष की जड़ सूख गई हो, उसे कितना ही .. 139 / पुराणों में जैन धर्म .
SR No.004426
Book TitlePuranome Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharanprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2000
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy