________________ वैसी ही भावना अपनी स्री के साथ रति में रखनी चाहिए, अन्य का तो प्रश्न ही नहीं उठता। नारी सर्वदा जलते हुए अंगारे के समान होती है और पुरुष घृत से पूर्ण कुम्भ के तुल्य होता है। अतः नारियों का संसर्ग सर्वदा दूर से ही परिवर्जित कर देना चाहिए। इसी प्रकार योगशास्रकार हेमचन्द्राचार्य ने भी कुछ स्री दोष बताये हैं जिन स्रियों में छल-कपट, कठोरता, चंचलता, स्वभाव की दुष्टता आदि दुर्गुण स्वाभाविक हैं, उनमें कौन बुद्धिमान् रमण करेगा? जिसका किनारा नहीं दिखाई देता, उस समुद्र का तो किनारा पाया जा सकता है, किन्तु स्वभाव से कुटिल स्रियों की दुष्ट चेष्टाओं का पार पाना कठिन है। यौवन में उन्मत्त दुराचारिणी स्रियाँ बिना स्वार्थ अथवा तुच्छ स्वार्थ के लिए अपने पति, पुत्र, पिता, प्राता के प्राण ले लेती हैं या संकट में डाल देती हैं। केवल दुराचारिणी स्रियों के अवगुण गान ही नहीं किये गये, सदाचारिणी .. स्रियों की प्रशंसा भी पर्याप्त की गई है। परस्री गमन का निषेध करते हुए पुराणों में कई स्थलों पर “मातृवत् परदारेषु" कहते हुए परस्री गमन का स्पष्ट निषेध है। वामन पुराण का तो यहाँ तक कथन है कि संसार में नपुंसक होकर जीवन बिताना उत्तम है किन्तु पराई त्रियों के साथ गमन करना अच्छा नहीं है। इससे होने वाली हानियों से भी अवगत कराया गया है। जैन धर्म में परस्री त्याज्य बताते हुए कहा है कि श्रावक (गृहस्थ) को स्वस्री का सेवन भी आसक्तिपूर्वक नहीं करना चाहिए। ऐसी स्थिति में समस्त पापों की खान परस्त्रियों का सेवन कैसे योग्य हो सकता है ? इसी प्रकार स्रियों के लिए परपुरुष त्याज्य कहा है-ऐश्वर्य से कुबेर के समान, रूप से कामदेव के समान सुन्दर होने पर भी स्त्री को परपुरुष का उसी प्रकार त्याग कर देना चाहिए जैसे सीता ने रावण का त्याग किया। उससे होने वाली हानियाँ भी बताईं। परस्री गमन से इस भव में वध, बंधन, ऊंचाई पर लटकाना, नासिका-छेद, इन्द्रियछेद और धर्मक्षय इत्यादि अनेक यातनाएं होती हैं तथा परलोक में शाल्मली . वृक्ष, तीक्ष्ण कंटक आलिंगन आदि दुःख नरक में भोगते हैं।६२ __. 'इस प्रकार नैष्ठिक (अध्ययन के पश्चात् गार्हस्थ्य में जाने वाला) एवं उपकुर्वाणक (मरण पर्यन्त ब्रह्मचारी रहने वाला) दोनों ही प्रकार के ब्रह्मचारी, संन्यासी तथा गृहस्थ आदि सभी के लिए ब्रह्मचर्य मूलगुण के रूप हैं।६३ .. ब्रह्मचर्य माहात्म्य जीवन रूपी भवन की नींव होने के कारण ब्रह्मचर्य का बड़ा महत्व है। .. शक्ति-संचय, ज्ञान-संचय, स्वास्थ्य-निर्माण, विद्योपार्जन जैसे प्रमुख उद्देश्यों की पूर्ति इस ब्रह्मचर्याश्रम में ही होती है। ब्रह्मचर्य में ही धैर्य, तप प्रतिष्ठित हैं। इस संसार .. 137 / पुराणों में जैन धर्म