________________ करते हैं। कामभोगों को किम्पाक फल के समान दुःखदायी माना है। ये प्रारम्भ में रमणीय प्रतीत होने पर भी परिणाम में अत्यन्त भयानक है; जैसे किम्पाक फल सुन्दर दिखलाई देता है किन्तु उसे खाने से मृत्यु हो जाती है। पुराणवत् ही यहाँ भी कहा गया है कि जो पुरुष विषय-वासना का सेवन करके कामज्वर का प्रतीकार करना चाहता है, वह घी की आहुति के द्वारा आग को बुझाने की इच्छा करता है। उत्तराध्ययन में काम का स्वरूप इस प्रकार व्यक्त है कामभोग शल्य रूप है, विष रूप है और आशीविष सर्प के समान है। कामभोग के अभिलाषी, कामभोगों का सेवन नहीं करते हुए भी दुर्गति में जाते हैं।५६ - आसक्ति (मोह) के बंधनों की दृढ़ता तभी कम होती है जब प्रेम के साथ विवेक बुद्धि का सामन्जस्य स्थापित हो तथा प्रेम रूपी अमृत प्राणीमात्र पर छिड़का जाए परन्तु जैसे संकीर्ण घेरे में रहने वाला पानी सड़ जाता है, वैसे ही तुच्छ स्वार्थों को प्रेम का रूप देने से उसका स्वरूप विकृत हो जाता है, जो कि निश्चय ही एक प्रकार के बंधन एवं दुःख को प्रदान करता है। इस बंधन में बड़े-बड़े त्यागी भी भ्रमित हो गए। इनसे बचना कितना दुष्कर है यह इस कथन में दृष्टव्य है विषय रूपी वृक्षों से प्रज्ज्वलित कामाग्नि तीनों लोकरूपी अटवी को जला देती है। यौवन रूपी तृण पर संचरण करने में कुशल कामाग्नि जिस महात्मा को नहीं जलाती, वह धन्य है। स्रियों के सर्वांगों को देखता हुआ भी जो इनमें दुर्भाव नहीं करता, विकार को भी प्राप्त नहीं होता, वही वास्तव में दुर्द्धर ब्रह्मचर्य भाव को धारण करता है।" - इसी प्रकार पुराण भी इस व्रत को दुष्कर बताते हैं। उनके अनुसार कामदेव के पुष्प बाणों द्वारा पूरी सृष्टि ही मोहित है। देव, दानव, गन्धर्व, किन्नर, महोरग, असुर, दैत्य, विद्याधर, राक्षस, यक्ष, पिशाच, भूत, विनायक, गुह्यक, मनुष्य, पक्षी, पशु, मृग, कीट, पतंग, जलज ही नहीं, यहाँ तक कि वासुदेव, स्थाणु, पुरुषोत्तम सभी इसके वश में हो जाते हैं। विष्णु पुराण में महर्षि सौभरी जो अन्यन्त तपस्वी थे, कालान्तर में उन्हें भी इस मोह जंजाल में आसक्त एवं दुःखी होते हुए दिखलाया गया है।५८. विषयों में अनासक्ति के उपदेश के अन्तर्गत स्री को एक पाशतुल्य बताया है। स्री के अनेक दोषों को बताते हुए उससे मुक्त रहने का तथा इसी प्रकार स्री के लिए पुरुष से मुक्त (निवृत्त) रहने का उपदेश दिया है। कामासक्ति के आकर्षण-भूत हेत् स्री संसर्ग के अनेक दोष देवीभागवत ने इस प्रकार से बताये हैं-स्री तो पुरुष को बंधन में डालने वाली श्रृंखला है। लोहे की जंजीरों से कसा हुआ व्यक्ति कभी मुक्त हो सकता है, किन्तु स्त्री के बंधन में पड़ा हुआ पुरुष कभी भी मुक्त नहीं होता। यही आशय शिव पुराण का भी है। कालिका पुराण में नारी को अनुराग का, काम-क्रोधादि का एवं रागवृक्ष का मूल कहा है। अत: अनासक्ति हेतु प्रेरित करते हुए कहा है-बहिर्भूमि में मल और मूत्र के त्याग करते समय जैसी मति होती है, सामान्य आचार / 136