________________ १.खण्डतः 2. सर्वतः। खण्डतः से. तात्पर्य है-परस्री या परपुरुष का त्याग एवं स्वस्री या स्वपुरुष के साथ मर्यादायुक्त् व्यवहार। सर्वतः से तात्पर्य है-मन, वचन और कर्म द्वारा सर्वदा एवं सर्वत्र ब्रह्मचर्य का पालन करना अर्थात् मैथुन से पूर्ण विरक्ति / केवल द्रव्य ही नहीं, भाव रूप ब्रह्मचर्य भी आवश्यक है। अज्ञानी साधकों का चित्तशुद्धि के अभाव में किया जाने वाला केवल जननेन्द्रिय निग्रह-रूप द्रव्यब्रह्मचर्य है क्योंकि वह मोक्ष के अधिकार से शून्य है। इस ब्रह्मचर्य को अल्प शक्ति वाले, सदाचार रहित, दीन, इन्द्रियों द्वारा जीते गये लोग स्वप में भी पालन नहीं कर सकते। जो शुद्ध भाव से इसका पालन करता है, वस्तुत: वही भिक्षु है।४ मैथुन शब्द का वास्तविक अर्थ विस्तीर्ण है-वासना को उत्तेजित करने वाली कोई भी कामराग-जनित चेष्टा मैथुन ही कहलाती है। जैन तथा पुराण साहित्य विषयों को विषम विष मानकर आत्महितेच्छुओं को उनसे बचने की प्रेरणा देता है। विष तो खाने पर मारता है किन्तु विषय तो स्मरण मात्र से ही घात कर देते हैं। इनकी यथार्थता दर्शाते हुए लिंगपुराण का कथन है कि विषयों के भोग करने से उसका रसास्वादन करते हुए मन ऊब जायेगा ऐसा सोचना गलत है, क्योंकि विषयों के साथ इन्द्रियों का संस्पर्श करते रहने से विरक्ति कभी नहीं हुआ करती है। विषयों से तृप्ति नहीं होती, अतः विचार से भी विषयों का त्याग करना चाहिए। काम की वासना कामों के उपभोग करते रहने से कभी शान्त नहीं होती प्रत्युत उपभोग करने से वह और अधिक बढ़ती है; जैसे अग्नि में हवि के डालते रहने से विशेष प्रज्ज्वलित हो जाया करती है। इसलिए योगियों को अमृतत्त्व की प्राप्ति के लिए विषयोपभोग का त्याग सर्वदा ही कर देना चाहिए। जो मनुष्य विरक्त न होकर विषयों में ही सदा लिप्त रहता है, वह नाना योनियों में जन्म लेकर आवागमन की असह्य पीड़ा को सहा करता है। शिव पुराण का मत है कि यदि इन महाबन्धनकारी विषयों की बाढ़ निरन्तर बढ़ती चली जाये तो स्वप्न में भी मोक्ष की आशा रखना दुर्लभ है। यदि मतिमान् मनुष्य सच्चा सुख चाहता है तो उसे सविधि विषयों का त्याग कर देना चाहिए। ये विषय विष के तुल्य मारक होते हैं। विषयी पुरुष के साथ वार्तालाप करने मात्र से मनुष्य का एक क्षण में पतन हो जाता है। महामनीषी आचार्यों ने विषयों को मिश्री से मिश्रित साक्षात् सुरा बतलाया है।५५ विषयासक्ति के दुष्परिणाम जैनागमों में भी बताये गये हैं। विषयासक्त इस लोक में भी नष्ट हो जाते हैं और परलोक में भी अच्छे से अच्छे सुखोपभोग करने * वाले देवता और चक्रवर्ती आदि भी अन्त में कामभोगों से अतृप्त ही मृत्यु को प्राप्त .. 135 / पुराणों में जैन धर्म