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________________ ब्रह्मचर्य पुराण तथा जैन धर्म में इसका अर्थ, स्वरूप, माहात्म्यादि विस्तृत रूप से वर्णित है, इन्हीं का आगे विश्लेषण किया जा रहा है। अर्थ एवं स्वरूप ... भारतीय धर्मशास्त्रों में मन, वचन एवं कर्म से, सभी अवस्थाओं में, सर्वकाल . में “मैथुन" का परित्याग करना ब्रह्मचर्य कहा गया है। शिव पुराण में महेश्वर द्वारा. देवगणों से कथित वक्तव्य के अनुसार जहाँ तक भी बन सके, मनुष्यों को विवाह के बंधन से बचना चाहिए। लिंग पुराणानुसार मन, वाणी और कर्म के द्वारा ब्रह्मचारी और यतियों की मैथुन-अप्रवृत्ति को ब्रह्मचर्य कहते हैं। तात्विक रूप से इसका अर्थ इस प्रकार है-“चित्तवृत्तियों के ब्रह्म में लीन रहने को ही सूक्ष्म ब्रह्मचर्य कहा गया है। ब्रह्मचारी के लिए ब्रह्म ही समिधा है, ब्रह्म ही अग्नि है, ब्रह्म से ही वह उत्पन्न हुआ है, ब्रह्म ही उसका जल और ब्रह्म ही गुरु है।” यहाँ मैथुन 8 प्रकार का बताया है-स्री का स्मरण,कीर्तन,प्रेक्षण,केलि,गुह्यभाषण,संकल्प,अध्यवसाय एवं क्रिया-उक्त 8 प्रकार के मैथुन का सर्वथा त्याग ही ब्रह्मचर्य कहा जाता है। यही विवेचन जैन धर्म में भी है। ब्रह्मचर्य का सूक्ष्म अर्थ है-ब्रह्म = आत्मा, आत्मा में चर्या-रमण करना ब्रह्मचर्य है। ब्रह्मचारी की परदेह में प्रवृत्ति और तृप्ति नहीं होती है। पूर्ववत् जैनागमों में भी नवबाड़ सहित ब्रह्मचर्य का पालन विहित है-स्री युक्त स्थान में रहना, स्रीकथा, परिचय, अंगोपांग देखना, शब्द-गीतादि सुनना, भुक्तभोग स्मरण, कामवर्धक भोजनपान, अधिक भोजन पान एवं शरीर-श्रृंगार-ये सब ब्रह्मचारी के लिए वर्ण्य हैं / 52 ब्रह्मचर्य के पालन में तरतमता (पूर्णता-अपूर्णता) भी व्यक्त की गई है। ब्रह्मचारियों की तीन श्रेणियाँ मानी गई हैं 1. ऊर्ध्वरेता, 2. योगी, 3: ब्रह्मचारी ऊध्वरेता उन ब्रह्मचारियों को कहा जाता है जिनके वीर्य में कम्पन या विकार कभी होता ही नहीं। इस प्रथम श्रेणी में सनकादि ऊध्वरता ब्रह्मचारी आते हैं। द्वितीय श्रेणी के ब्रह्मचारी योगी कहे जाते हैं। जिनके विकार तो अवश्य उठते हैं किन्तु वे अपने कठोर संयम, प्रज्ञा और योग साधनादि के द्वारा उन विकारों को ब्रह्म में लीन कर देते हैं। नारद और भीष्मादि द्वितीय श्रेणी के ब्रह्मचारी माने जाते हैं। तीसरी श्रेणी के अन्तर्गत वे सभी साधक आते हैं जो कि कामशक्ति का मार्गान्तरीकरण करके उसे व्रत-तप में लगाते हैं। वे स्री संसर्ग एवं सन्तानोपत्ति भी करते हैं।५३ ___पात्र (साधक) की अपेक्षा इनके पालन में तरतमता जैन धर्म में भी बतलाई गई है, जिन्हें दो भागों में विभक्त किया जा सकता है- .. . सामान्य आचार / 134
SR No.004426
Book TitlePuranome Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharanprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2000
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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