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________________ पुराणों के अनुसार आपत्ति के समय में भी विचारपूर्वक पराया धन ग्रहण नहीं करना चाहिए और वह भी मन, वचन तथा कर्म के द्वारा नहीं लेना अचौर्य कहा जाता है। अनेक स्थलों पर “परद्रव्येषु लोष्ठवत्” कहकर दूसरों की वस्तुओं की आकांक्षा नहीं रखने का सन्देश दिया गया है। __ जैनधर्म में भी चौर्य के परिहार हेतु स्थूल एवं सूक्ष्म समस्त वस्तुओं को वस्तु के अधिकारी की इच्छा-अनुमति के बिना लेने का स्पष्ट शब्दों में निषेध है। श्रमण के सन्दर्भ में अस्तेय महाव्रत का सूक्ष्म विवेचन किया है कि ग्राम, नगर अथवा अरण्य में (कहीं भी) दूसरे की वस्तु देखकर उसे ग्रहण करने का भाव (विचार) त्याग देने वाले साधु के तीसरा अचौर्यव्रत होता है। सचेतन या अचेतन, अल्प या बहुत, यहाँ तक कि दांत साफ करने की सींक भी साधु बिना दिये ग्रहण नहीं करते। आचार्य हेमचन्द्र ने भी किसी भी प्रकार की अदत्त वस्तु ग्रहणं करने का निषेध किया, चाहे वह गिरी हुई हो, भूली हुई हो, खोई हुई हो या रखी हुई हो। न केवल अचौर्य कर्म का परिहार ही पुराण तथा जैन धर्म में किया गया, बल्कि निंदा भी की है। वामन पुराण में लिखा है कि भिक्षा करके जीवनयापन करना कहीं अधिक अच्छा है, परन्तु पराये धन का हरण करके सुखोपभोग करना अच्छा नहीं होता है। जैन धर्म में चौर्य कर्म की निन्दनीयता इस प्रकार से है-परधन अपहर्ता अपने इस लोक, परलोक, धैर्य, स्वास्थ्य, हिताहित विवेक को हरण करता है तथा निन्दा को प्राप्त करता है। परलोक में दुःखभोगी, धर्म, धीरज एवं सन्मति का नाश कर देता है। चोरी पापरूप पादप के फल दो भागों में विभक्त होकर मिलते हैं। इस लोक में वध, बंधनादि तथा परलोक में नरक की भीषण वेदना का संवेदन / परन्तु जो अचौर्य का पालन करता है, उनके सामने स्वयं लक्ष्मी स्वयंवरा की भाँति चली आती है, अनर्थ दूर हो जाते हैं, लोक में उसकी प्रशंसा होती है तथा स्वा सुख प्राप्त करता है। इस प्रकार पुराण" तथा जैन धर्म में चोरी के निषेध के साथ-साथ चोर के नरक गमन एवं चोर के संग को भी त्याज्य बताया है। वस्तुतः अदत्तादान (चोरी) भी एक प्रकार से हिंसा ही है। किसी को मारने पर तो उसे अकेले को, कुछ क्षण का ही दुःख होता है, किन्तु किसी का धन हरण करने पर उसे तथा उसके पुत्र-पौत्रों को जीवन भर के लिए दुःख होता है। इसीलिए आत्मा को कलुषित करने वाले इस चौर्य का निषेध करते हुए सभी धर्मों में अस्तेय का विधान किया गया है। 133 / पुराणों में जैन धर्म
SR No.004426
Book TitlePuranome Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharanprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2000
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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