________________ सत्य होने पर भी जो बात अन्य प्राणियों को दुःख देने वाली हो, उसे भी कभी नहीं बोलना चाहिए।" यहाँ भी पुराणों के समान अहितकारी, पीड़ादायक सत्य बोलने की अपेक्षा मौन को उत्तम माना गया है। जैनागमों में मेतार्य मुनि आदि की घटनायें हैं। जिसमें उन्होंने देखा कि मेरे सत्य बोलने से किसी को कष्ट होगा तो वे मौन रह गए, भले ही उन्हें भयंकर कष्ट के साथ मृत्यु भी आ गई, परन्तु उन्होंने अपने सत्य धर्म को नहीं छोड़ा और न असत्य ही बोले। / - सत्य बोलना कितना दुर्लभ है, इसका उल्लेख हरिवंश पुराण में इस प्रकार से है कि संसार में देश-कालानुरूप हितकर और मधुर वचन बोलने वाले मनुष्य दुर्लभ हैं। सत्य बोलने वाले अपने स्नेही जनों को हमेशा हित की बात बतायें, चाहे वह सुनने में अप्रिय ही क्यों न हो। किन्तु जो लोग असत्य भाषी, धर्म मर्यादा को भंग करने वाले, सुनने की इच्छा न रखने वाले और सबके अप्रिय हों, उनसे न तो प्रिय बात कहनी चाहिए और न हित की ही-ऐसा श्रेष्ठ पुरुषों ने कहा है। समुच्चय रूप से वर्जित वचन जैनागम स्थानांगसूत्र में अग्रलिखित बताये हैं-असत्य वचन, तिरस्कारयुक्त वचन, झिड़कते हुए वचन, कठोर वचन, उपशान्त मनुष्यों को फिर से भड़काने वाले कलह वचन-इन छ: प्रकार के वचनों को नहीं बोलना चाहिए। संक्षेप में कहें तो वाचिक अहिंसा का पालन ही सत्य है। “सत्य की साधना करने वाला साधक सब ओर से दुःखों से घिरा रहकर भी घबराता नहीं है, विचलित नहीं होता है। वह मार-मृत्यु का प्रवाह तैर जाता है, अतः सत्य में घृति करे, स्थिर हो। वस्तुतः यह कथन तथ्यतः सत्य ही है-"सत्यमेव जयते नानृतम्।” अचौर्य (अस्तेय) किसी के द्वारा बिना दी हुई कोई वस्तु वह चाहे बडी हो या छोटी. अपने अधिकारों में कर लेना स्तेय (चौर्य) है। इसके विपरीत अस्तेय का स्वरूप है. जो सद्गुणों का कारण तथा परद्रव्य-हरण से निवृत्ति कराने वाला है। पतंजलि के अनुसार “अस्तेय व्रत का साधक दिव्य दृष्टि वाला बन जाता है। पृथ्वी में स्थित गुप्त रल-भण्डार भी उसे दीखने लगते हैं।” आध्यात्मिक लाभ के अतिरिक्त लोक में वह प्रामाणिक तथा विश्वासपात्र समझा जाता है। सभ्य एवं विश्वस्त होने से वह सभी जगह सम्माननीय होता है। सामान्य आचार / 132 .