________________ से दूसरों का अहित होता हो तो मौन रहना ही उचित है। यदि प्रिय वाक्य भी सत्य तथा हितकारी न हो तो उसे भी न कहे / केवल हित करने वाले वाक्य ही कहना चाहिए, चाहे वह कैसा भी क्यों न हो। ___ अर्थात् सत्य अप्रिय, अहितकारी न हो अथवा केवल प्रिय ही न हो, उसके साथ हित का भी अवश्य ध्यान रखना चाहिए। सत्य के लिए हरिश्चन्द्रादि ने अपने सारे सुखों को बलिदान कर दिया। अपने सुखों को या स्वार्थ को महत्त्व न देकर सत्य को महत्त्व देना चाहिए-इस सन्दर्भ में विष्णुपुराण में ही वर्णित एक घटना “देव-दैत्य युद्ध” उद्धरणीय है ___ युद्धपूर्व देव तथा दैत्य ने ब्रह्मा से अपना भविष्य पूछा तो उन्हें बताया गया “जिस पक्ष में राजा जि शस्त्र धारण करके लड़ेगा, वह जीतेगा।” दैत्य रजि के पास गये। रजि ने शर्त रखी "विजयी होने पर मैं दैत्यों का इन्द्र बन सकूँ तो मैं तुम्हारी ओर से युद्ध करने के लिए तैयार हूँ।” इस पर दैत्यों ने स्पष्ट रूप से कहा “हम जो कह देते हैं, उससे विपरीत आचरण कभी नहीं करते। हमारे इन्द्र प्रह्लाद हैं, उन्हीं के लिए हम युद्ध में तत्पर हुए हैं।” दैत्य हार गये, परन्तु उन्होंने कपट (असत्याचरण) का आलम्बन नहीं लिया। इस आख्यान से ज्ञात होता है कि सत्य के लिए कितना साहस तथा स्पष्टवादिता आवश्यक है।६ ___ सत्य पालन में वाणी-विवेक आवश्यक है। सत्य तथा मधुर वचन बोलने वाला ही वेदपाठ का सच्चा अधिकारी और ज्ञाता होता है। शीतल मलय (चन्दन), चन्द्रिका, छाया, जल से भी नहीं प्राप्त होने वाला आनन्द मधुर स्नेहपूर्ण वाणी से प्राप्त होता है। अतः कटुक वचन, किसी के अन्तर (मन) को दुःखी करने वाले, अवमानित करने वाले वचन नहीं बोलने चाहिएँ। ऐसा सत्य एवं मधुर बोलने वाला ही कल्याण को प्राप्त करता है। जैन धर्म में सत्य का स्वरूप व्याख्यात हैा सत्य बोलने में हित तथा प्रियत्व का ध्यान रखने के लिए पुराणों के समान ही बताया गया है। ऐसा ही सत्य वचन बोलने योग्य हैं जो हित, मित (प्रिय) एवं ग्राह्य हो, असत्य केवल झूठ को ही नहीं कहा है। असत्य की व्यापक परिभाषा करते हुए स्वप्रशंसा तथा परनिन्दा को भी असत्य के ही समकक्ष माना है। कहना कुछ, और करना कुछ (कपट) भी. असत्य है। सत्य वचनों में भी अनवद्य सत्य (हिंसा रहित वचन) को ही श्रेष्ठ माना है तथा मन में कपट रखकर झूठ बोलना, वाघालता, पैशुन्य (चुगली), परनिन्दा, मायामृषा आदि सभी असत्य ही हैं। दशवैकालिक में भाषाशुद्धि विषयक एक पूरा अध्याय है जिसका तात्पर्य व्याकरण की शुद्धि से नहीं बल्कि भाव शुद्धि से है अर्थात् उन शब्दों या वाक्यों का प्रयोग नहीं करना चाहिए, जिनके सुनने से सुनने वालों को कष्ट हो। . 131 / पुराणों में जैन धर्म