________________ गम्भीर है। सत्यवादी की प्रशंसा करते हुए यहाँ तक कह दिया है कि सत्यवादी माता की तरह विश्वासपात्र होता है, गुरु की तरह लोगों का पूज्य तथा स्वजन की तरह सभी को प्रिय लगता है। आचार्य हेमचन्द्र ने सत्यवादी का प्रभाव व्यक्त किया है कि जो सत्पुरुष ज्ञान और चारित्र के कारणभूत सत्य वचन ही बोलते हैं, उनके चरणों की रज पृथ्वी को पावन बनाती है तथा सत्यरूपी महाधन युक्त महापुरुष का भूत, प्रेत, सर्प, सिंह, व्याघ्र आदि कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते हैं। सत्य को ही यश का मूल कारण, विश्वास प्राप्ति का मुख्य साधन, स्वर्ग का द्वार एवं सिद्धि का सोपान माना है। इसके विपरीत असत्य को निकृष्टतम बताते हुए कहा है कि एक ओर जगत् के समस्त पाप एवं दूसरी ओर असत्य का पाप इन दोनों को तराजू में तोला जाये तो बराबर होंगे। विश्व के सभी सत्पुरुषों ने मृषावाद (असत्य) की निन्दा की है। जिस प्रकार सत्य विश्वास का कारण है, वैसे ही असत्य अविश्वास का मूल कारण है। असत्य वचन बोलने से बदनामी होती है, परस्पर वैर बढ़ता है और मन में संक्लेश होता है। असत्य का आचरण ही नहीं बल्कि प्ररूपणा (प्रतिपादन) करने वाले भी संसार से पार नहीं हो सकते / " पुराणवत् सत्य के सुख आदि अनेक सुपरिणाम तथा असत्य की हानियाँ भी विविध दृष्टान्तों द्वारा इस प्रकार बताई हैं जैसे कडुवे तूम्बे का एक ही बीज एक भार गुड़ का मीठापन नष्ट कर देता है; जैसे मनुष्य के सामुद्रिक श्रेष्ठ लक्षण लाखों हों परन्तु उनमें कौए के पाँव का एक लक्षण भी हो तो वे लाखों शुभ लक्षण व्यर्थ हो जाते हैं; वैसे ही असत्यभाषण सभी उत्तम गुणों को अप्रामाणिक बना देता है। यथा विषों में तालपुट एवं व्याधियों में क्षेत्रक (विक्षिप्त या उन्माद) व्याधि असाध्य है; वैसे ही असत्य भयंकर तथा असाध्य होता है / मृषावादी (असत्यवादी) जहाँ जाता है या उत्पन्न होता है, अप्रिय होता है तथा परभव में वह दुर्गन्धित शरीर वाला, दुर्गन्धित मुख वाला, अनादेय, अनिष्ट वचन वाला, कठोर कर्कश वचन वाला, जड़, बधिर, गूंगा, तोतला होता है तथा इस लोक में जिह्वा छेद, वध बंधन, अपयश और धननाश आदि से दुःख पाता है। सत्य का स्वरूप सत्य क्या होता है, कैसा सत्य बोलना चाहिए और कैसा नहीं बोलना चाहिए, इसके विवेक के अभाव में सत्याचरण का विधिवत् पालन नहीं हो सकता। सत्य का तथ्य बताते हुए कहा है सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात् न ब्रूयात् सत्यमप्रियम्। प्रियं च नानृतं ब्रूयादेष धर्मः सनातनः / / विष्णु पुराण में ज्ञानी पुरुष का कर्तव्य निर्धारित करते हुए कहा है कि वह उसी प्रकार का सत्य बोले, जिससे दूसरों को सुख मिले। यदि किसी सत्य वाक्य सामान्य आचार/ 130