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________________ में भी त्रिकरण (करना, कराना एवं अनुमोदन करना) तथा त्रियोग (मन, वचन तथा शरीर) द्वारा हिंसा को त्याज्य प्रतिपादित किया है। यहाँ तक कि वामन पुराण में कहा गया है “प्राणों का त्याग कर देना श्रेष्ठ है परन्तु दूसरों की हिंसा करना कभी भी अभिमत नहीं है / "33 जैनधर्मानुसार भी अहिंसा के समान दूसरा धर्म नहीं है। वस्तुतः जितनी सूक्ष्म दृष्टि से देखें, अहिंसा उतना ही व्यापक विषय है। इसका पूर्ण विवेचन कर पाना असंभव लगता है। सत्य सत्य माहात्म्य महाभारत में आख्यात है कि सत्य से बढ़कर कोई धर्म नहीं है और झूठ से बढ़कर कोई पाप नहीं है। सत्य ही धर्म की आधारशिला है, अत: सत्य का लोप न करें। सत्य की महिमा का वर्णन सभी ने किया है। पुराण तथा जैन धर्म में सत्य का इतना माहात्म्य बताया है कि सब कुछ सत्य से ही प्राप्त होता है। सत्य के बिना कुछ नहीं, सत् पर ही आगे का सभी निर्माण है, दुनिया में असत् कुछ भी नहीं है। सत्य के माहात्म्य की पुष्टि करते हुए अनेक प्राचीन कथानक भी लिखे गये हैं। हरिवंशपुराणकार ने सत्य के विषय में लिखा है कि देवता सदा सत्य में तत्पर रहते हैं किन्तु महान् असुर सदैव असत्य में ही आसक्त रहते हैं। जहाँ धर्म, तप और सत्य होता है, वहाँ निश्चय ही विजय होती है। इसका आशय यह है कि सत्यवादी मानव देवतुल्य कहे जाते हैं और मिथ्यावादी जन “असुर' की संज्ञा प्राप्त करते हैं। सत्य बोलना सामाजिक व्यवस्था का मूल उन्नायक है। सत्य बोलना वाणी का तप है। शिवपुराण में सत्यं को ही परमब्रह्म, परमतप, सबसे बड़ा यज्ञ माना है। सत्य पर ही पृथ्वी टिकी हुई है। सत्य पर ही सब कुछ निर्भर है / एक हजार अश्वमेध के फल को, एक लाख यज्ञ के फल को तराजू के एक पलड़े पर रखा जाये और दूसरे पर सत्य को, तो सत्य ही भारी सिद्ध हो सत्य ही परमधर्म, परमपद तथा परमब्रह्म है। अतः इन सबकी प्राप्ति के लिए सदा सत्य बोलना चाहिए। स्वर्ग (पुण्य लोक) के भागी वे ही होते हैं जो अपने लिए, अन्य के लिए, पुत्र के लिए भी कभी झूठ नहीं बोलते / . सत्य से ही सूर्य, चन्द्र प्रकाशित हो रहे हैं। यह सत्य ही उनकी तपश्चर्या है जिसके कारण वे अपने प्राकृत नियम पर चल रहे हैं। सत्याचरण से उन्नति तथा मिथ्याचरण से अवनति होती है। सत्य में तपादि सभी प्रतिष्ठित होते हैं। सत्य से जो पुण्य प्राप्त होता है, वह उत्तम दक्षिणायुक्त अनेक यज्ञादि से या अन्य किसी उत्तम कार्य से प्राप्त नहीं होता है।" पुराणवत् ही जैन धर्म भी सत्य को प्रमुख व्रत मानता है। उसे साक्षात् भगवान् ही कह दिया है / सत्य ही संसार में सारभूत है तथा महासमुद्र से भी अधिक .. 129 / पुराणों में जैन धर्म
SR No.004426
Book TitlePuranome Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharanprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2000
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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