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________________ - हैं, वे मरकर घोर दुर्गति में जाते हैं। वास्तव में हिंसा न कभी धर्म हुआ है और न कभी होगा ही। जैन धर्म भी इन हिंसक बलि-यज्ञादि का एक स्वर से विरोध करता है। मूलाचार में इसे मूढ़ता (मिथ्यात्व) कहकर परित्याग योग्य बताया है। आचार्य हेमचन्द्र ने “यज्ञार्थे पशवः सृष्टा” आदि विधान के रचयिता क्रूरकर्मा ऋषियों को चार्वाकादि नास्तिकों से भी अधम माना है। उनके अनुसार देवपूजा, यज्ञादि के बहाने बलि चढ़ाने तथा जीव हिंसा करने वाले निर्दय लोग नरकादि घोर दुर्गतियों को प्राप्त करते हैं तथा श्राद्ध, बलि, यज्ञादि में पूजादि का तो बहाना मात्र है, वस्तुतः वे अपनी मांसलोलुपता की अभिलाषा को पूर्ण करते हैं। जिह्वा के लिए माँसाहार पाप है तो धर्म के नाम पर यह महापाप हो जाता है। ___ उत्तराध्ययन के १२वें अध्याय में हरिकेशी मुनि इन कर्मकाण्डों को करते हुए ब्राह्मणों को सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि तुम क्यों अग्नि का आरम्भ करते हो? इन्द्रियों का दमन करने वाले छ: जीवकाय की हिंसा नहीं करते। यदि यज्ञ करना है तो ऐसा यज्ञ करना चाहिए जो पूर्णरूपेण अहिंसक हो। उस यज्ञ का स्वरूप इस प्रकार है-पाँच संवर से युक्त, असंयमी जीवन को नहीं चाहने वाला, शरीर ममत्व का त्याग करने वाला, निर्मल व्रत वाला, महानजय वाले श्रेष्ठ यज्ञ का अनुष्ठान करता है। उस यज्ञ में तप रूपी अग्नि, जीव अग्नि का स्थान और मन, वचन, काया के शुभ व्यापार कुड़छी रूप हैं, शरीर कंडा रूप है और आठ कर्म लकड़ी रूप हैं, संयम चर्या शांति पाठ रूप है, ऐसा यज्ञ ऋषियों द्वारा प्रशंसित है।" आन्तरिक परिणामों (भावों) द्वारा यज्ञ का वर्णन भागवत में भी है। भागवत में निर्दोष यज्ञ के सम्बन्ध में महर्षि व्यास का कथन है-“जीव रूपी कुण्ड में स्थित दमरूपी पवन से प्रज्ज्वलित की हुई, ध्यान रूपी अग्नि में अशुभ कर्म रूपी समिधा (लकड़ियाँ) डालकर उत्तम होम करें। धर्म, काम और अर्थ का नाश करने वाले दुष्ट कषाय रूपी पशुओं का शान्ति रूपी मन्त्र पढ़कर यज्ञ करो, ऐसे यज्ञ का ही ज्ञानियों ने विधान किया है। अश्वमेधादि यज्ञों का सत्यार्थ इस प्रकार बताया है-मन रूपी घोड़े का यज्ञ करना अश्वमेध यज्ञ है, असत्य रूपी गाय का यज्ञ गोमेघ है, इन्द्रिय रूपी अज का यज्ञ करना अजमेध यज्ञ है, कामदेव रूपी पुरुष का यज्ञ नरमेध यज्ञ है, इस प्रकार के यज्ञ पूर्वोक्त रीति से करने चाहिए। हिंसात्मक यज्ञ म्लेच्छता का परिचायक है। विष्णु पुराण में इसको निम्नस्तर का बताया है-यदि यज्ञ में बलिदान होने वाले पशु को स्वर्ग मिलता है तो यजमान अपने पिता का बलिदान करके उसे स्वर्ग क्यों नहीं प्राप्त करा देता है ? "32 अहिंसा पालन में ये समस्त मूढतायें बाधक होती हैं। सब प्राणियों के प्रति स्वयं को संयत रखना, यही अहिंसा का पूर्णदर्शन है। जैन धर्म के समान ही पुराणों सामान्य आचार / 128
SR No.004426
Book TitlePuranome Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharanprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2000
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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