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________________ को पीड़ा से प्रकंपमान देखकर भी प्रकंपित नहीं होता, वह निरनुकंप कहलाता है, चूंकि अनुकंपा का अर्थ ही है-काँपते हुए को देखकर कंपित होना। हिंसा के इन विभिन्न हेतुओं में से आरम्भिकी (आवश्यक) हिंसा में भी किस प्रकार प्यान रखना चाहिए, इस सन्दर्भ में लिंग पुराण में निर्दिष्ट है यथा “जल सूक्ष्म जन्तुओं से मिश्रित होता है, अत: अपूत जल से सम्पूर्ण पाप प्राप्त होता है, क्योंकि सूक्ष्म जन्तुओं की वहाँ हिंसा होती है। गृहस्थों को सम्मार्जन में अर्थात् घर की सफाई करने में, अग्नि जलाने में, धान्यादि पीसने में और जल संग्रह में नित्यप्रति हिंसा हुआ ही करती है। अतः जलादि, वस्रादि से पवित्र कर छान कर ग्रहण करना चाहिए।"२६ इस प्रकार पुराणों में भी आवश्यक कार्यों में भी जागृति का सन्देश दिया गया है। - हिंसा का ही एक प्रकार है-सांकल्पिकी हिंसा अर्थात् द्वेषपूर्वक हिंसा करना। पुराण तथा जैन धर्म दोनों में इसको पूर्णतया वर्जित बताया है। यहाँ तक कि जिसने अपकार किया है, ऐसे व्यक्ति की भी हिंसा नहीं करनी चाहिए। दिल में भी उसके प्रति दुर्भावना नहीं रखकर समभाव रखना चाहिए। हिंसा सप्रयोजन तथा निष्प्रयोजन दोनों प्रकार की होती है। स्वार्थादि किसी भी प्रयोजन से कृत हिंसा भी उचित नहीं मानी गई है तो निष्प्रयोजन का तो प्रश्न ही नहीं उठ सकता है। हिंसा चाहे जिस प्रयोजन से की जाये, वह हिंसा ही है। . यद्यपि प्राचीन वैदिक श्रुतियों में वैदिकी हिंसा, हिंसा नहीं मानी गई किन्तु जैनधर्म में ही नहीं, पुराणों में भी इस उक्ति का खण्डन किया गया है। मत्स्य पुराण में एकदम स्पष्ट शब्दों में इसका विरोध किया है अधर्मो बलवानेष हिंसा धर्मसया वत।। नवः पशुविधिस्त्विष्टस्तव यज्ञे सुरोत्तम / / पशुवध का निषेध करते हुए कहा गया है कि यज्ञ में पशु हिंसा करने से धर्म के नाम पर बहुत बड़ा अधर्म होता है / मनि जाभी भी हिंसा या हिंसापरक यज्ञ का अनुमोदन नहीं करते। यज्ञादि को हिसार का तिरस्कार करते हुए भागवत में प्राचीनवर्हि नामक राजा को नारद ऋषि द्वारा दिया गया यह उपदेश यहाँ दृष्टव्य है-“हे राजन् ! तूने घोर अन्याय किया है। कुगुरुओं के मिथ्या उपदेश के जाल में फंसकर, वेद की आज्ञा का रहस्य समझे बिना, उसका उल्टा अर्थ करके दीन पशुओं की ओर नजर न करके यज्ञ के नाम पर, अरांट करने वाले हजारों पशुओं को जला डाला है। वे सब पशु तुझसे बदला लेने के लिए तेरी मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहे हैं। तेरी आयु समाप्त होते ही वे अलग-अलग तेरा वध उसी प्रकार करेंगे, जैसा तूने उनका वध किया है।" यह सुनते ही प्राचीनबर्हि राजा ने हिंसाधर्म का त्याग कर दिया। यज्ञ के समान ही बलि के बहाने भी जो निर्दय लोग प्राणियों की हिंसा करते .. 127 / पुराणों में जैन धर्म
SR No.004426
Book TitlePuranome Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharanprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2000
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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