________________ करते हैं तथा जो हिंसा करने वाला है, उसे सभी बाधा पहुँचाते हैं। अहिंसा को सर्वश्रेष्ठ प्रतिपादित करते हुए कहा है कि किसी वेद के पारगामी विद्वान को सम्पूर्ण त्रैलोक्य का दान करने से जो फल प्राप्त होता है, उस फल से भी कोटिगुणा फल सदा अहिंसक मानव द्वारा प्राप्त किया जाता है। अतएव मन, वचन और कर्म से सदा समस्त प्राणियों के हित में अनुराग रखने के अनुरागवाले पुरुष सद्गति को प्राप्त किया करते हैं। त्रियोग द्वारा हिंसा का निषेध विष्णु पुराण, स्कन्द पुराण, नारद पुराण आदि में भी. स्पष्ट रूप से दृष्टिगत होता है।" अग्नि पुराण में अहिंसा की तुलना हस्ती पद से की गई है अर्थात् जिस प्रकार “सर्वे पदा हस्ती पदे निमग्ना" हाथी के पाँव में सभी के पाँव समाहित हैं-वैसे ही अहिंसा में अन्य सभी गुण आ जाते हैं। शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वर पूजन, प्राणियों को कष्ट न देना आदि सभी अहिंसा के ही विभिन्न रूप हैं भूतपीड़ा ह्यहिंसा स्यादहिंसा धर्म उत्तमः। . यथा गजपदेऽन्यानि पदानि पथगामिनाम // 22 जैन धर्म के अनुसार भी अहिंसा में ही अन्य सभी धर्म समाहित हैं। सत्य. अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह आदि सभी का समावेश अहिंसा में हो जाता है। जैसे सभी नदियाँ समुद्र में विलीन हो जाती हैं, वैसे ही सब धर्म अहिंसा में समा जाते हैं। जिस प्रकार जगत् में मेरूपर्वत से ऊंचा और आकाश से विशाल और कुछ भी नहीं है, वैसे ही अहिंसा के समान कोई धर्म नहीं है। अहिंसा की गरिमा मत्स्य पुराण के शब्दों में इस प्रकार है-जितना पुण्य चार वेदों के अध्ययन से या सत्य बोलने से अर्जित होता है, उससे कहीं अधिक पुण्य की प्राप्ति अहिंसा व्रत के पालन से होती है।२४ जैन धर्मानुसार हिंसा के उद्देश्य भिन्न-भिन्न होते हैं। “इसने मुझे मारा”, कुछ लोग इस विचार से अर्थात् प्रतिशोध की भावना से हिंसा करते हैं। “यह मुझे मारता है" कुछ इस विचार से प्रतिकार की भावना से हिंसा करते हैं। “यह मुझे मारेगा" कुछ लोग इस भय की भावना से हिंसा करते हैं। कोई लोभवश, कोई द्वेषवश या स्वार्थवश अथवा कोई-कोई अज्ञानवश धर्म के लिए भी हिंसा करते हैं / 25 - धर्म के नाम पर की गई हिंसा से लाभ की कामना रखना उसी प्रकार है, जैसे कोई जड़ (मूल) को काटते हुए वृक्ष को विकसित करने की बात सोचता है। इसके अतिरिक्त एक हिंसा ऐसी भी है जिसे गृहस्थ अपनी आवश्यकताओं (क्षुधादि). की पूर्ति हेतु करता है, जिसे आरम्भिकी नाम दिया है, परन्तु इसमें भी सावधानी, उपयोग या ध्यान रखने के लिए प्रेरित किया है। यदि अन्तःकरण दया के रस से युक्त हो तो सावधानी स्वतः रखी जाती है। दया के अभाव में ही हिंसा का उगम होता है। अहिंसा का मूल दया है। बृहत्कल्पभाष्य के अनुसार जो कठोर हृदय दूसरे सामान्य आचार / 126