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________________ तथा कुछ ऐच्छिक होते हैं। सामान्य धर्म तो प्रत्येक जन के लिए आवश्यक ही है। उन सामान्य धर्मों का यहाँ संक्षिप्त विवेचन किया जा रहा है। धार्मिक आचारों के दो रूप हैं जिनमें कुछ विधेयात्मक आचार हैं तथा कुछ निषेधात्मक / वस्तुतः तो विधेय के अन्तर्गत ही निषेध है तथा निषेध में ही विधेय भी समाहित होता है यथा धर्म का विधेयरूप है अहिंसा पालनीय है। सभी प्राणियों को आत्मवत् समझना तथा निषेध रूप है प्राणी वध न करना, इस प्रकार दोनों परस्पर समन्वित हैं। दोनों रूप पुराण तथा जैन साहित्य में दृष्टिगोचर होते हैं। सामान्य धर्मों में सबसे प्रथम धर्म है अहिंसा। अतः उसी का सर्वप्रथम विवेचन किया जा रहा है अहिंसा अहिंसा को धर्म का मूल या प्राण माना गया है। पुराणों को देखने से पता लगता है कि इनमें भी अहिंसा का सिद्धान्त पूर्ण विकसित एवं समृद्ध है। यह साधारण धर्म का प्रमुख अंग बन गया है। . . तथापि जैन धर्म में जितना अहिंसा का सूक्ष्म विवेचन है उतना अन्यत्र कहीं मिलना संभव नहीं है। वहाँ निश्चय दृष्टि से जो प्रमत्त है, वह हिंसक है तथा जो अप्रमत्त है, वही अहिंसक है। .. ___ हिंसा की परिभाषा देते हुए तत्त्वार्थसूत्र में लिखा . है-“प्रमत्तयोगात्प्राणव्यपरोपणंहिंसा"१३ प्रमादवश जो प्राणघात होता है, वह हिंसा है। हिंसा के तीन रूप हैं-मानसिक, वाचिक, कायिक / पुराणों में इन तीनों प्रकार की हिंसा का स्पष्टतया निषेध है। अर्थात् हिंसा के विचार पहले मन में आते हैं। तत्पश्चात् वचनं तथा काय द्वारा व्यक्त होता है। वायुपुराण में हिंसा के उद्देश्य से नहीं होने वाली तथा अनजान में होने वाली भूल को भी क्षम्य नहीं कहा है। वहाँ लिखा है कि-मन, वाणी एवं कर्म से सभी जीवों के प्रति अहिंसा का पालन करना चाहिए। यदि कोई भिक्षु अनिच्छा से भी किसी पशु की हिंसा कर डालता है तो इस दोष या पाप से मुक्ति पाने के लिए प्रायश्चित स्वरूप उसे चान्द्रायण आदि कठोर व्रतों को करना चाहिए।" - जैनागमों में भी त्रिविध हिंसा का निषेध करते हुए लिखा है कि मन, वचन और काय, इन तीनों से प्राणियों को नहीं मारना चाहिए। अनजान में हुई हिंसा का यहाँ भी प्रायश्चित विधान किया गया है। हिंसा का विशिष्ट रूप यह बताया गया है कि हिंसा केवल दिखाई देने वाली ही नहीं है बल्कि आत्मा के अशुभ परिणाम ही हिंसा है। हिंसा के दो रूप होते हैं-भावहिंसा और द्रव्यहिंसा / मन में (क्रोधादि) जागृत होना भावहिंसा है और मन के भाव को वचन और क्रियारूप देना द्रव्यहिंसा 123 / पुराणों में जैन धर्म ,
SR No.004426
Book TitlePuranome Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharanprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2000
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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