________________ धर्माचरण : एक विवेचन धर्म के प्रधानतः दो रूप होते हैं१. सामान्य धर्म 2. विशेष धर्म सामान्य धर्म-सार्वकालिक एवं सर्वजनपालनीय होता है एवं विशेष धर्म-देश, काल, परिस्थिति एवं सम्बन्ध आदि के अनुसार एक वर्ग अथवा व्यक्ति का अपना धर्म है। यह विभिन्न व्यक्ति या स्थिति के अनुसार भिन्न-भिन्न प्रकार का होता है। विभिन्न धर्माचारों का वर्णन करते हुए देवीभागवतपुराण में कहा गया है-शास्त्रीय और लौकिक के भेद से आचार दो प्रकार का है। जो अपना शुभ चाहते हैं, वे इन दोनों में से एक का भी त्याग न करें। सत्पुरुषों का कर्तव्य है कि वे ग्राम धर्म, जाति धर्म, देश धर्म, कुल धर्म-इन सभी का पालन करें।" ___पुराणों में वर्णित इन धर्मों का विवरण जैनागम स्थानांगसूत्र में भी है। इस सूत्र में धर्म के दस प्रकार लिखे हैं।२ 1. ग्राम धर्म-गाँव की परम्परा या व्यवस्था का पालन करना। 2. नगर धर्म-नगर की परम्परा या व्यवस्था का पालन करना। 3. राष्ट्र धर्म-राष्ट्र के प्रति कर्तव्य का पालन, करना। 4. पाखंड धर्म-पापों का खण्डन करने वाले आचार का पालन करना। 5. कुल धर्म-कुल के परम्परागत आचार का पालन करना / 6. गण धर्म-गण की परम्परा या व्यवस्था का पालन करना। 7. संघ धर्म-संघ की मर्यादा या व्यवस्था का पालन करना। 8. श्रुत धर्म-द्वादशांग श्रुत की आराधना या अभ्यास करना। 9. चारित्र धर्म-संयम की आराधना करना, चारित्र पालना। 10. अस्तिकाय धर्म-अस्तिकाय अर्थात् बहुप्रदेशी द्रव्यों का धर्म (स्वभाव)। उपर्युक्त धर्मों में से कुछ लौकिक कर्तव्यों को इंगित करते हैं तथा कुछ पारमार्थिक लक्ष्य हेतु हैं। व्यक्ति पर जब जिस कर्त्तव्य के पालन का समय आता है, उसे अवश्य पालन करना चाहिए, यही बताना पुराण एवं जैन साहित्य में वर्णित प्रामादि धर्मों का हेतु है। ___ पुराणों में आश्रम, वर्ण आदि भेदों द्वारा प्रत्येक के पृथक् कर्त्तव्य घोषित किए गये हैं। यथा क्षत्रिय का धर्म है सुरक्षा करना आदि। जैन धर्म में भी गृहस्थ, संन्यासी आदि सभी के लिए कई कर्तव्य (नियम) निर्धारित किये गये हैं। उनमें कुछ आवश्यक सामान्य आचार / 122