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________________ यह है कि धर्म समस्त चराचर जगत् को धारण करता है तथा सब को धारण करने की योग्यता रखने के कारण ही उसे धर्म कहा जाता है। प्राचीन महर्षियों ने इसकी विभिन्न परिभाषाएँ की हैं। महामहोपाध्याय डॉ. पी. वी. काणे ने अपने ग्रन्थ “धर्मशास्र का इतिहास” में प्राचीन ग्रन्थों के आधार पर लिखा है कि “धर्म” से तात्पर्य मानव के उन विशेषाधिकारों एवं विशिष्ट कर्तव्यों से है जो कि वह एक आर्यों के समाज के सदस्य के रूप में, किसी विशेष वर्ग के सदस्य के रूप में, अथवा जीवन की विशेष अवस्था में पूर्ण करता है।" धर्म का व्याकरण की दृष्टि से अर्थ स्वभाव होता है, यथा अग्नि का धर्म है उष्णता। इसी प्रकार आत्मा का जो ज्ञानरूप स्वभाव है वही उसका धर्म भी है। ऐसे आत्मधर्म को प्राप्त करने के लिए, प्रकट करने के लिए जो व्यावहारिक तौर पर साधनाएँ प्राचीन ऋषि-मुनियों द्वारा बतलाई गई हैं, उन्हें भी "धर्म" नाम से अभिहित किया जाता है यद्यपि वह अभ्यास ही है। जैनागमों में कहा गया है “वत्थु सहावो धम्मो” अर्थात् वस्तु का अपना स्वभाव धर्म है। दुर्गति में गिरते हुए प्राणी को धारण करने से धर्म "धर्म" कहा जाता है। जो विविध कर्मावरणों से आच्छादित है, उसको प्रकट करने में सहायक होने से अर्थात् जिससे आत्मा की शुद्धि हो, उसे भी धर्म कहते हैं। पुराण तथा जैन साहित्य में धर्म को सबसे श्रेष्ठ तथा जीवन में प्रमुख पुरुषार्थ बताया गया है। धर्महीन व्यक्ति के अर्थ, काम वन्ध्यासुतवत् निष्फल होते हैं। धर्म से ही सब कुछ प्राप्त होता है। प्राणी अकेला ही जन्म लेता है और अकेला ही प्रयाण करता है। उस समय उसके साथ कोई भी धन, परिजन, मित्रादि नहीं होते हैं। केवल एक धर्म ही उसके जीवन में सहायक होता है। मनुष्य के लिए माता-पितादि कोई भी सहायक नहीं है इसलिए सभी को नित्यप्रति धर्माचरण करना चाहिए। लिंगपुराणकार ने धर्म का अर्थ बताते हुए लिखा है कि कुशल कर्म ही धर्म है तथा अकुशल कर्म ही. अधर्म है। अर्थात् लौकिक एवं पारलौकिक कल्याण सम्पादनार्थ जिस साधन को धारण किया जाये, वह धर्म है। धर्म का महत्त्व - जैन साहित्य में धर्म का महत्त्व वर्णन करते हुए उसे जीवन के प्रमुख ध्येय रूप में दिखलाया है। उसे ही एक मात्र शरण बताते हुए बताया है कि जरा-मरण के महाप्रवाह में डूबते प्राणी के लिए एक मात्र धर्म ही द्वीप है, प्रतिष्ठा-आधार है, गति है और उत्तम शरण है। जो वर्तमान में इसका आचरण नहीं करता, उसे भविष्य में पश्चात्ताप करना पड़ता है। यही धर्म अबन्धुओं का बन्धु है, अमित्रों का मित्र है, अनाथों का नाथ है तथा इस जगत् में परमवत्सल धर्म ही है।" 121 / पुराणों में जैन धर्म
SR No.004426
Book TitlePuranome Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharanprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2000
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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