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________________ आचरण के अभाव में ज्ञान सिर्फ भारतुल्य ही है, यथा गधे पर चन्दन का भार होते हुए भी उसे सुगन्ध का पता नहीं चलता, वह उसे सिर्फ ढोता रहता है। वस्तुतः आचार का इतना महत्त्व है कि उसके अभाव में अन्य साधन साधक को सहायक नहीं होते हैं। तैरने की कला का ज्ञानमात्र प्राप्त करने से व्यक्ति तैर नहीं सकता, यदि वह हाथ-पाँव हिलाकर कोई कायचेष्टा नहीं करे। आचारांग-नियुक्तिकार ने सम्पूर्ण जिनवाणी (आगम साहित्य) का सार ही “आचार” को माना है तथा आचरण का सार निर्वाण (मुक्ति) बताया है। आचरणहीन ज्ञानी वस्तुतः अज्ञानी है, किन्तु चारित्रयुक्त ज्ञान अल्प होते हुए भी महान् फल देने वाला है। चाहे भिक्षु हो या गृहस्थ, जो सुव्रती सदाचारी है, वह दिव्यगति को प्राप्त करता है। समस्त सामान्य या विशेष धर्म सदाचार (शील) के ही अंग हैं। इसी के आधार पर अन्य गुणों की भी स्थिरता संभाव्य है, किन्तु इस गुण के अभाव में दुःशील दुराचारी व्यक्ति की स्थिति को स्पष्ट करते हुए उत्तराध्ययन सूत्र का कथन है कि जो दुःशील व्यक्ति होता है वह स्वादिष्ट चावलों का भोजन छोड़कर विष्ठा खाने वाले शूकर के तुल्य ही होता है, क्योंकि वह भी सदाचार को छोड़कर दुराचार को पसन्द करता है। ऐसा दुःशील, उद्दण्ड, मुखर वाचाल मनुष्य सर्वत्र धक्के देकर निकाल दिया जाता है; जैसे सड़े कानों वाली कुतिया जहाँ भी जाती है दुत्कार कर निकाल दी जाती है। इस प्रकार दुराचारी स्वयं ही स्वयं का अहित कर लेता है। पूर्व वर्णित पुराणानुसार आचारहीन साधक की रक्षा तीर्थ, यज्ञादि कोई भी नहीं कर सकता है। उसी प्रकार यहाँ भी कहा गया है-चीवर, मृगचर्म, नग्नता, जटाएँ, कंथा और सिरोमुण्डन; यह सभी उपक्रम आचार रहित साधक की (दुर्गति से) रक्षा नहीं कर सकते हैं। इस प्रकार स्पष्ट होता है कि पुराण तथा जैन साहित्य में आचार का पर्याप्त महत्त्व है, किन्तु साथ ही एक अपेक्षा भी है कि वह धर्मसम्मत हो; अन्यथा अधर्मयुक्त आचार दुराचार कहा जाता है। यहाँ धर्माचरण के विषय में पुराण तथा जैन धर्म के मन्तव्य प्रस्तुत किये जा रहे हैं। धर्म : व्युत्पत्ति एवं अर्थ 'धृ' धातु से निष्पन्न धर्म शब्द का वैयाकरणों ने विविध प्रकार से व्युत्पन्नार्थ निर्दिष्ट किया है। यथा-१. वह कर्म जिसके आचरण से इस लोक में अभ्युदय और परलोक में मोक्ष की प्राप्ति हो, वह धर्म है। 2. जिससे लोक धारण किया जाये, वह धर्म है। 3. जो लोक को धारण करें, वह धर्म है। 4. जो अन्यों से धारण किया जाये, वह धर्म है। महाभारतानुसार धारण करने से यह धर्म कहा गया है। आशय सामान्य आचार / 120
SR No.004426
Book TitlePuranome Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharanprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2000
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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