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________________ है क्योंकि आचार का विचार से सम्बन्ध अवश्य है, अन्यथा नारदपुराण में लिखा है कि दूसरों के वैभव से अपने हृदय को सन्तप्त करने वाले, केवल दम्भ के लिए सदाचार का प्रदर्शन करने वाले मिथ्याचारियों से भगवान् बहुत दूर रहते हैं। आचार को प्रथम धर्म बताते हुए आचार से श्रेष्ठत्व तथा सत्कर्म की प्राप्ति बतलाई गई है। श्रेष्ठ जाति में उत्पन्न भी यदि आचारहीन हो तो वह शूद्र-तुल्य ही होता है। जिस प्रकार पुराणों में आचार का माहात्म्य निरूपित है उसी प्रकार जैनधर्म में भी आचार को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है। रत्नत्रयी जिसे मोक्ष प्राप्ति का साधन माना है, उसमें सम्यक्चारित्र भी है, जिसका सम्बन्ध आचार से ही है। मोक्ष प्राप्ति जैन धर्मानुसार मात्र ज्ञान से या मात्र चारित्र से नहीं होती है वरन् इन दोनों के संगम से ही होती है। जैसा कि सूत्रकृतांग में कथन है-“आहंसु विज्जाचरणं पमोक्खं"। __अर्थात् ज्ञान और कर्म (विद्या एवं आचरण) से ही मोक्ष की प्राप्ति होती है।' यही व्यवहार भाष्य तथा विशेषावश्यक भाष्य का भी कथन है। इस प्रकार दर्शनपूर्वक ज्ञान तथा चारित्र द्वारा आत्मा को चरम तथा परम लक्ष्य की प्राप्ति होती है। मोक्ष के हेतुभूत इन साधनों का उत्तराध्ययन तथा तत्त्वार्थसूत्र में भी निर्देश है। .. _ यदि व्यक्ति में ज्ञान बहुतसा है किन्तु उसका फल सदाचार नहीं है तो वह उस मिथ्यादृष्टि का ज्ञान भी अज्ञान ही बताया गया है। यह सत्य ही कहा गया है-“हतं ज्ञानं क्रियाहीनं, हता. चाज्ञानिनां क्रिया” अर्थात् आचरण के अभाव में ज्ञान व्यर्थ साबित हो जाता है तथा ज्ञान के अभाव में आचरण व्यर्थ है। आचार्य भद्रबाहु ने स्वरचित ग्रन्थ “आवश्यक नियुक्ति” में यही बात दृष्टान्तों द्वारा समझाई है-यथा वन में आग लगने पर पंगु उसे देखता हुआ और अन्धा दौड़ता हुआ भी आग से बच नहीं पाता, जलकर नष्ट हो जाता है, वैसे आचारहीन ज्ञान तथा ज्ञानहीन आचार भी विनाश को प्राप्त होता है। यदि जीवन में शास्त्रों का ज्ञान तो बहुत है किन्तु फिर भी जो साधक चारित्रहीन है, वह संसार-सागर में डूब जाता है। जैसे करोड़ों दीपक जला देने पर भी अन्धे को कोई प्रकाश नहीं मिल सकता है, तदनुसार ही शास्रों का बहुत-सा अध्ययन भी चारित्रहीन के लिए किस काम का? शास्त्रों का थोड़ा-सा अध्ययन भी सच्चरित्र साधक के लिए प्रकाश देने वाला होता है। जिसकी आंखें खुली हैं, उसको एक दीपक भी काफी प्रकाश दे सकता है। अतः संयोग सिद्धि (ज्ञान और क्रिया का संयोग) ही फलदायी (मोक्ष रूपी फल देने वाला) होता है। एक 'पहिए से कभी रथ नहीं चलता। जैसे अन्धा और पंगु मिलकर वन के दावानल से पार होकर नगर में सुरक्षित पहुँच सकते हैं, वैसे ही साधक भी ज्ञान और क्रिया के समन्वय से ही मुक्ति लाभ प्राप्त करता है। 119 / पुराणों में जैन धर्म
SR No.004426
Book TitlePuranome Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharanprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2000
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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