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________________ आचार सिद्धान्त : सामान्य आचार आचार का जीवन में बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान है। आचार का सामान्य अर्थ है-व्यावहारिक जीवन में आचरण योग्य वे नियम जो चारित्र का गठन करते हैं, आचार के अन्तर्गत आते हैं। इस प्रकार आचार से तात्पर्य अच्छे चाल-चलन से है। महाभारत में आचार को धर्म का लक्षण कहा गया है। आचार से धर्म उत्पन्न होता है। श्रुतियों और स्मृतियों में भी आचार को सबसे बड़ा धर्म बतलाया गया है। सदाचार भारतीय संस्कृति की मुख्य विशेषता है। सज्जनों के आचार को सदाचार कहा जाता है-“सज्जनानां आचारः सदाचारः”। आचार माहत्म्य जैन एवं पौराणिक साहित्य में भी आचार पर बहुत बल दिया गया है। पुराणकार के अनुसार सदाचार का सभी को पालन करना चाहिए। आचार रहित को यज्ञ, तप, दानादि करने पर भी कल्याण की प्राप्ति नहीं होती। यह एक वटवृक्षवत् है, जिसने इसका भली-भाँति सेवन. किया है, वह बहुत ही अधिक पुण्यभागी होता है। इसका मूल धर्म है, शाखाएँ धन है, तथा मोक्ष इसका फल है। आचार का श्रेष्ठत्व प्रतिपादित करते हुए दुराचाररत व्यक्ति की हानियाँ बताई गई हैं कि वह निन्दा का पात्र, व्याधिग्रस्त, अल्पायु, सदा दुःख भोक्ता होता है। अतः व्यक्ति को सावधानीपूर्वक स्वेच्छा से अवश्य सदाचार का पालन करना चाहिए। आचार ही परम धर्म, परम विद्या, परम धन तथा परम गति है आचारः परमो धर्मः, आचार: परमं धनम्। आचारः परमो विद्या, आचार: परमा गतिः / / वेद ज्ञान, भगवद् भक्ति भी आचारभ्रष्ट पुरुष को पवित्र नहीं कर सकती है। उसकी रक्षा तीर्थ, यज्ञादि कोई भी नहीं कर सकते हैं। सदाचार से ही स्वर्ग, सुख, मोक्ष आदि सभी प्राप्त होता है। सदाचारपूर्वक ही सभी अर्हतायें (योग्यतायें) पूर्ण होती हैं। विद्वेष तथा राग से रहित जो सम्यक् आचरण किया जाता है, उसे ही स्कन्दपुराणकार ने सदाचार कहा है। सदाचार के पालन में भी भावना होना आवश्यक सामान्य आचार / 118
SR No.004426
Book TitlePuranome Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharanprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2000
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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