________________ कहलाती है। अर्थात् कोई प्राण के द्रव्यरूप ही नहीं, भाव रूप का भी घात करे तो वह हिंसा के क्षेत्र में ही आयेगा। आचार्य अमृतचन्द्र के शब्दों में यत्खलु कषाय योगात् प्राणानां द्रव्य-भाव-रूपाणाम्। . व्यवरोपणस्य करणं सुनिश्चिता भवति सा हिंसा / / इसे श्री नाथूराम जी ने अपने शब्दों में इस प्रकार स्पष्ट किया है “जिस पुरुष के मन में, वचन में व काय में क्रोधादि कषाय प्रकट होते हैं, उसके शुद्धोपयोग रूप भावप्राणों का घात तो पहले होता है क्योंकि कषाय के प्रादुर्भाव से भावप्राण का व्यवरोपण होता है, यह प्रथम हिंसा है; पश्चात् यदि कषायों की तीव्रता से दीर्घ श्वासोच्छवास से हस्तपादादि से वह अपने अंग को कष्ट पहुँचाता है अथवा आत्मघात कर लेता है तो उसके द्रव्यप्राणों का व्यवरोपण होता है, यह दूसरी हिंसा है; फिर उसके कहे हए मर्म-भेदी कुवचनादिक से व हास्यादि से लक्ष्य पुरुष के अंतरंग में जो पीड़ा होकर उसके भाव प्राणों का व्यवरोपण होता है, यह तीसरी हिंसा है; और अन्त में उसके तीव्रकषाय व प्रमाद से लक्ष्य पुरुष को जो शारीरिक अंगच्छेदन आदि पीड़ा पहुँचायी जाती है तो परद्रव्य प्राण व्यवरोपण होता है, यह चौथी हिंसा है। सारांशतः कषाय से अपने पर के भाव प्राण व द्रव्य प्राण का घात करना हिंसा का लक्षण है।"१५ प्रस्तुत अंश से स्पष्ट है कि अहिंसा बहुत सूक्ष्म है। ज्ञान का सार ही अहिंसा है। अहिंसा एक सहस्रवाहिनी धारा है जिसके हजारों रूप हैं। भगवान् महावीर ने कहा है-“दया, समाधि, क्षमा, सम्यक्त्व, आराधना, धृति (चित्त की दृढ़ता), समृद्धि (आत्मिक आनन्द), प्रमोद, रक्षा, समिति, आश्वासन, विश्वास, अभय, समत्व, प्राणियों के प्रति मैत्रीभाव-यह समस्त अहिंसा का परिवार है। हिंसक न केवल पर-अहित करता है बल्कि स्वयं अपने लिए कई हानियाँ पैदा कर लेता है। पर-अहित हो या न हो, यह कोई जरूरी नहीं; परन्तु जिसको हिंसा के विचार आते हैं, वह उसी क्षण स्वहिंसा कर लेता है अर्थात् अन्य का अहित (अनिष्ट) करने के लक्ष्य से स्वयं का ही अनिष्ट हो जाता है। सूत्रकृतांग के प्रथम श्रुतस्कंध में यही कहा है कि जो छली अपने सुखों के लिए दूसरों को दुख देते हैं, उन्हें वे हिंसित जीव बाद में (अन्य जन्मों में) वैसे ही कष्ट पहुँचाते हैं, मारते हैं।"१६ अहिंसा के पीछे मूल भावना यही है कि जिस प्रकार हम सुखी रहना चाहते हैं या जीवित रहना चाहते हैं, वैसे ही अन्य जीव भी सुख या जीवन चाहते हैं। अतः उनकी रक्षा करना वस्तुतः हमारे कल्याण (श्रेय) की ही रक्षा है। सभी प्राणियों को सुख प्रिय तथा दुःख अप्रिय लगता है, इसलिए प्राणियों में मैत्री भावना रखनी चाहिए। आचारांग सूत्र में यही बात जरा विस्तृत रूप से समझाई गई है कि स्व और पर को एक ही तुला पर रखना चाहिए। जो स्व सुख-दुःख को जानता है, वह अन्य के भी सामान्य आचार / 124